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________________ त्रैवर्णिकाचार। .. देना बादर प्राभृतिक दोष है । जैसे-शुक्ल अष्टमीको दान देनेका निश्चय कर शुक्ल पंचमीको दे देना, यह दिवसहानि है और शुक्ल पंचमीको दान देनेका निश्चय कर शुक्ल अष्टमीको देना यह दिवसवृद्धि है। चैत्रके शुक्लपक्षमें देनेका निश्चयकर उसके कृष्णपक्षमें देना यह पक्षहानि और चैत्रके कृष्णपक्षमें देनेका निश्चय कर उसके शुक्लपक्षमें देना यह पक्षवृद्धि । चैत्रमासमें देनेका निश्चय कर फाल्गुनमें देना यह मासहानि और फाल्गुनमें देनेका निश्चयकर चैत्रमें देना यह मासवृद्धि है। तथा आगेके वर्षमें देनेका निश्चयकर इसी वर्ष दे देना यह वर्षहानि और इसी वर्ष देनेका निश्चयकर आगेके वर्षमें देना यह वर्षवृद्धि है । तथा भोजनके समयोंमें हीनाधिकता करना सूक्ष्मप्राभतिक दोष है। जैसे-दोपहरको दान देनेका निश्चयकर सुबह ही देदेना अथवा शामका निश्चयकर दोपहरको देना यह समयहानि और सुबह देनेका निश्चयकर दोपहरको देना अथवा दोपहरका निश्चयकर शामको देना यह समयवृद्धि । इस तरह कालकी हानि-वृद्धि कर आहार देना प्राभृतिक दोष है। ऐसा करनेमें दाताको श्लेश होता है, बहुतसे जीवोंका विघात होता है और प्रचुर आरंभ करना पड़ता है; इसलिए यह दोष माना गया है॥८४॥ बलि दोष । संयतानां प्रभूतानां गमनार्थ विशेषतः। कृत्वा पूजादिकं चान्नं दीयते बलिदोषभाक् ॥ ८५ ॥ संयत हमारे घरपर जावें इस अभिप्रायसे यक्षादि देवोंकी पूजा करके बाकी बचा हुआ आहार देना बलिदोष है ।। ८५ ॥ ___ न्यस्त दोष। सत्पात्रभाजनादन्नं स्थापित चान्यभाजने । न्यस्तदोषोऽयमुद्दिष्टः सद्भिरागमपारगैः॥ ८६ ॥ । जिस पात्रमें भोजन बनाया गया हो उसमेंसे निकालकर दूसरे पात्रमें रखकर अपने ही घरमें या दूसरेके घरमें ले जाकर रख देनेको आगमके पारंगत पुरुष न्यस्त दोष कहते हैं। भावार्थ-इस तरहका भोजन मुनीश्वरोंको नहीं लेना चाहिए। क्योंकि आहार देनेवाला दाता ऐसी क्रिया दूसरेके भयसे करता है, अतः उसमें विरोधादि दोष देखे जाते हैं । ८६ ॥ . प्रादुष्कार दोष। .... ........ आहारभाजनादीनामन्यस्माच्च प्रदेशतः। अन्यत्र नयनं दीपपज्वालनमतोऽपि च ॥ ८७ ॥ प्रादुष्किको मतो दोषो वर्जनीयः शुभार्थिभिः । भोजनके वर्तनोंको एक स्थानसे उठाकर दूसरी जगह लेजाकर रखना प्रादुम्कार दोष है, तथा दीपक जलाना भी प्रादुष्कार दोष है । शुभ चाहनेवाले पुरुषों को इस दोषका त्याग करना चाहिए । भावार्थ-प्रादुष्कार दोषके दो भेद हैं-एक संक्रमण और दूसरा प्रकाश । संयतोंको घरपर आते देखकर भोजनके पात्रोंको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाना संक्रम दोष है। तथा भस्मआदिसे वर्तनोंको मांजना, दीपक जलाना वर्तनोंको फैलाकर रखना आदि प्रकाश नामका दोष है ॥ ८७॥.. .
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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