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________________ ३५६ सोमसेनभट्टारकविरचित नाग, यक्ष आदि देवोंको, जैनधर्भसे बहिर्भूत पाषंडोंको, तथा दीन-पुरुषों को देनेके उद्देश से बनाये हुए आहारको औद्देशिक आहार कहते हैं। ऐसा आहार मुनीश्वरों को ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ८० ॥ 11. साधिक दोष | संयताँश्च बहून् दृष्ट्वा भोज्यं यदधिकं खलु । क्रियते सोऽधिको नाम दोषो धीमद्भिरुच्यते ॥ ८१ ॥ मुनियोंको आते देखकर उन्हें आहार देनेके लिए अपने लिए बनते हुए दाल भात आदि भोजन में और दाल-भात छोड़ देना इसको बुद्धिमान् साधिक या अध्यधि दोष कहते हैं । भावार्थ - जिस पात्र में अपने लिए दाल-भात पक रहे हों या जल गर्म हो रहा हो सीमें, मुनियोंको आते देखकर उन्हें आहार देने के लिए दालमें दाल, चांवलों में चांवल और पानीमें पानी और छोड़ देना साधिक दोष है ॥ ८१ ॥ पूति दोष । रन्धन्यां प्रवराहारं पूतित्वं साधुहेतुकम् । मार्जनं लेपनं चेति पञ्चधा पूतिदोषकः ॥ ८२ ॥ इस रसोईघर में या वर्तनमें भोजन बनाकर पहले साधुओं को दूंगा, पश्चात् औरोंको दूंगा इसे पूति दोष कहते है । भावार्थ - इस श्लोक में जो पांच प्रकारका पूतिदोष गिनाया है वह बराबर समझ में नहीं आया । अन्य ग्रन्थोंमें पूति दोषका कथन इस प्रकार है । जो आहार प्रासुक होते हुए भी उसका अप्रासुक-सचित्तता के साथ संबंध हो तो वह पूति दोषसे संयुक्त माना गया है। उसके पांच भेद हैं-घनी, उदूखल (ऊखल), दव ( कच्छीं ), भाजन और गंध । इस रसोईघर में भोजन बनाकर पहले मुनियोंको दूंगा पश्चात् औरोंको दूंगा, यह रंघनी नामका पूतिदोष है । इस ऊखल में कूटकर जबतक ऋषियोंको न दे लूंगा तब तक औरोंको भी न दूंगा, यह ऊखल नामका पूतिदोष है । इसी तरह दव, भाजन और गंध दोषोंको समझना चाहिए । यद्यपि इस उद्देशमें भोजन प्रासुक है, परंतु वह अप्रासुकताका संबंध लिए हुए है अतः दोष है ॥ ८२ ॥ मिश्र दोष । मुनीनां दानमुद्दिश्य पाषण्डिभिरमार्जनैः । सागारैरशनं याद्धे स मिश्रो दोष उच्यते ॥ ८३ ॥ ** जिस आहारमें पाखंडियों और गृहस्थों के साथ साथ मुनियों को देने का उद्देश किया जाय वह प्रासुक बना हुआ आहार भी मिश्रदोषसे संयुक्त है ॥ ८३ ॥ प्राकृतिक दोष । कालहीनं हि यद्दानं दीयते सानुरागतः । काळातिक्रमतः सोऽयं दोषः प्राभृतिको यतः ॥ ८४ ॥ जिस समय या जिस दिन दान देना निश्चित किया जाय उससे पहले या पीछे दान देना प्राभृतिक दोष है। भावार्थ- प्राकृतिक दोष के दो भेद हैं-एक बादर और दूसरा सूक्ष्म । पुनः प्रत्येक के दो भेद हैं- कालानि और कालवृद्धि । बिन, पक्ष, मास और वर्ष में होनाधिकता कर
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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