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________________ त्रैवर्णिकाचार । २६१ ऐसा कहना अयुक्त नहीं है। यदि आपका यह कहना हो कि ऐसे कार्य करनेके अनन्तर ही नरकको चला जाना चाहिए तो जिसको आप महापापी समझते हैं वह भी क्या महापापके अनन्तर हा नरक चला जाता है ? यदि कहेंगे कि नियम नहीं तो बस ठीक है, यहां भी ऐसा क्यों नहीं मान लेते कि उसी समय चला जाय या कालान्तरमें चला जाय, कोई नियम नहीं । ग्रन्थकारका सिर्फ आशय इतना ही है कि मर्यादा उल्लंघन करना अच्छा नहीं है, जिसका फल नरकादि गतियोंमें जाना है । इसमें उनने कर्म-फिलासफीको उठाकर कैसे ताकमें रख दिया है सो कुछ समझमें ही नहीं आता। जो बात युक्तियुक्त है उनमें भी व्यर्थकी ऊटपटांग शंकायें उठाई जाती हैं। यह सब कर्मफिलासफीके न समझनेका ही फल प्रतीत होता है। पुत्रनिश्चयः-स्वाङ्गजः पुत्रिकापुत्रो दत्तः क्रीतश्च पालितः । भगिनीजः शिष्यश्चेति पुत्राः सप्त प्रकीर्तिताः ॥९॥ अपनेसे उत्पन्न हुआ पुत्र, पुत्रीका पुत्र, दत्तक पुत्र, खरीदा हुआ पुत्र, पाला हुआ पुत्र, भाँजा और शिष्य, ऐसे सात प्रकारके पुत्र होते हैं ॥ ९ ॥ सूत्रं बलं हस्तमानं चत्वारिंशच्छताधिकम् । तत्रैगुण्यं बहिवृत्त्याऽन्तवृत्त्या त्रिगुणं पुनः ॥१०॥ गृहभायां समादाय स्वयं हस्तेन कतयेत् । तेन सूत्रेण संस्कार्य शुभ्रं यज्ञोपवीतकम् ॥ ११॥ रुईके एक सौ चालीस हाथ लंबे सूतको तिहराकर उसे बाहरकी तरफसे बटे । फिर उसे तीन लड़ाकर भीतरकी तरफसे बटे । यज्ञोपवीतके सूतको गृहपत्नी स्वयं अपने हाथसे काते । उसी सूतका सफेद यज्ञोपवीत बनावे ॥ १०-११ ॥ नान्दीश्राद्धे कृते पश्चादुल्कापाताग्निवृष्टिषु । सूतकादिनिमित्तेषु न कुर्यान्मौञ्जीबन्धनम् ॥ १२ ॥ यस्य माङ्गलिक कार्य तस्य माता रजस्वला । तदा न तत्पकर्तव्यमायुःक्षयकरं हि तत् ॥ १३ ॥ मात्रा सहैव भुञ्जीत ऊर्ध्व माता रजस्वला । व्रतबन्धः प्रशस्तः स्यादित्याह भगवान्मुनिः॥१४ ॥ नान्दीश्राद्धे कृते पश्चात्कन्यामाता रजस्वला । कन्यादानं पिता कुर्यादित्यादि जिनभाषितम् ॥ १५॥ नान्दीश्राद्ध हो चुकनेपर, उल्कापात, अमिप्रवेश, अतिवृष्टि और सुतक आदि कारण आ उपस्थित हों तो मौंजी-बन्धन-संस्कार न करे। जिस बालकका यज्ञोपवीत-मंगल करनेका है उस बालककी माता यदि रजस्वला हो जाय तो उसका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह बालककी आयुका विनाश करनेवाला है। यज्ञोपवतिके समय माताके साथ बैठकर भोजन करने की विधि होती है । उसके हो चुकनेके बादमें माता यदि रजस्वला हो जाय तो कोई हानि
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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