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________________ त्रैवर्णिकाचार। २१५ जो इसलोक और परलोक सम्बन्धी हित करने वाला हो, धार्मिक भावोंकी जागृति पैदा करने वाला हो और पीठ पीछे भी बड़ाई करने वाला हो उसे बुद्धिमान लोग मित्र कहते हैं ॥ ५९ ॥ धनधान्यसुवर्णानि वस्त्रशस्त्राणि भेषजम् । रसा रत्नानि भूरीणि सन्ति कोश इति स्मृतः ॥ ६ ॥ धन, धान्य, सुवर्ण, वस्त्र, शस्त्र, औषध, रस, रत्न आदिको कोश कहते हैं ॥ ६० ॥ वैषम्यं वारिणा पूर्ण सर्वधान्यास्त्रसंग्रहः । तृणकाष्ठानि भृत्याश्च पलायनावकाशकम् ॥ ६१ ॥ उपला वह्नियन्त्राणि गुटीगोफणषड्रसाः। गूढमार्गाः प्रवर्तन्ते यत्र दुर्गः स उच्यते ॥ ६२॥ जो ऊंचे नीचे पथरीले स्थानमें बना हुआ हो, जिसमें जल खूब हो, सब तरहके धान्य और अस्त्रोंका जिसमें संग्रह हो, घांस, लकड़ी, नौकर, चाकर जहांपर खूब हों, निकल भागनेका जिसमें रास्ता हो; बड़े २ पत्थर, अग्नि, यंत्र, गोले, गोफण और दूध दही आदि छह रसोंसे परिपूर्ण हो, जिसका रास्ता ऐसा गूढ़ हो कि जिसमें होकर शत्रुओंका प्रवेश न हो सके, वह दुर्ग कहा जाता है ॥ ६१-६२॥ पुरनगरसुग्रामाः खेटखवटपत्तनाः । द्रोणाख्यं वाहनं यत्र सन्ति राष्ट्रः स उच्यते ॥ ६३ ॥ जहां पर पुर, नगर, ग्राम, खेट, खर्वट, पत्तन, द्रोण और वाहन हैं उसे राष्ट्र कहते हैं ॥६३ ॥ ग्रामो वृत्त्यावृतः स्यानगरमुरुचतुर्गोपुरोद्भासिसालं। . खेटं नद्यद्रिवेष्टयं परिवृतमभितः खर्वटं पर्वतेन ॥ ग्रामैर्युक्तं परं स्यादलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनि । द्रोणाख्यं सिन्धुवेलावलयवलयितं वाहनं चाद्रिरूढम् ॥ ६४॥ जिसके चारों ओर कांटोंकी बाड़ लगी हो उसे ग्राम और जिस ग्रामके चारों दिशामें चार मोटे मोटे दरवाजे हों उसे नगर कहते हैं । पर्वत और नदीसे बेढ़े हुए ग्रामको खेट और चारो ओरसे पर्वत द्वारा घिरे हुए ग्रामको खर्वट कहते हैं। जिसमें एक हजार ग्राम लगते हों वह पुर और जिसमें रत्नोंका खजाना हो वह पत्तन कहलाता है । और समुद्रसे बढ़े हुए ग्रामको द्रोण और पर्वतके ऊपर बने हुए ग्रामको वाहन कहते हैं ॥ ६४॥ अजनाद्रिसमा नागा वायुवेगास्तुरङ्गमाः । रथाः स्वर्गविमानामा भीमा भृत्याश्चतुर्बलम् ॥ ६५ ॥ जिसमें अंजन पर्वतके समान बड़े २ काले हाथी हों, हवाकी तरह तेज दौड़ने वाले घोड़े हों, स्वर्गीय विमानोंकी तरह ऊँचे ऊँचे रथ हों और भयानक-अर्थात् युद्ध-कलामें निपुण सिपाही हों, उसे चतुरंग-सैन्य कहते हैं ॥६५॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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