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________________ त्रैवर्णिकाचार | दशवाँ अध्याय । - मंगलाचरण | भुवनकमलमित्रः सर्वदा यः पवित्रः । सुकृतकरचरित्रः पालितानेकमित्रः । स जयति जिनदेवः सद्य एवैन्मुदं वः । शिवपदमपि भक्त्या धर्मनाथो जिनेन्द्रः ॥ १ ॥ जो तीन- भुवन रूपी कमलके मित्र हैं, जो सदा पवित्र हैं, जिसका चारित्र पुण्यको करनेवाला है, और जिसने अनेक श्रद्धानी भव्यों का पालन-पोषण किया है, वह श्रीजिनेंद्रदेव जयवंत रहें और शीघ्र ही तुम्हारे हर्ष बढ़ावें । तथा भक्तिद्वारा श्रीधर्मनाथ - जिनेन्द्र शिव पद भी देवें - तुम्हारा कल्याण करें || १ | व्रत- ग्रहण - विधि | अथोपवीतान्वित एव शिष्यो । महागुणाढयो विभवैरुपेतः । ब्रजेज्जिनेन्द्रालयमुन्नताङ्गं । समावृतोऽसौ परितः कुटुम्बैः ॥ २ ॥ २७७ व्रतावतरण क्रियाके बाद यज्ञोपवीतयुक्त महा गुणवान और अनेक प्रकारके विभवसे परिपूर्ण वह शिष्य अपने कुटुंबियों सहित श्रीजिन-मन्दिरको जावे ॥ २ ॥ पादौ प्रक्षाल्य जैनेन्द्रं प्रविशेत्सदनं शनैः । पूजां शान्तिं विधायात्र सङ्गच्छेद्गुरुसन्निधौ ॥ ३ ॥ पैर धोकर जिनमंदिर में प्रवेश करे । वहाँ पूजा और शान्ति करके गुरुके पास जावे || ३ || फलं धृत्वा गुरोरग्रे महाभक्तिसमन्वितः । पंचाङ्गं नमनं कुर्यात्करयुग्मशिरः स्थितः ॥ ४ ॥ समाधानं च सम्पृच्छयोपविशेद्विनयाद्भुवि । धर्मवृद्धधादिना सोऽपि तोषचेच्छिष्यवर्गकम् ॥ ५ ॥ बहुत भक्ति-पूर्वक गुरुके सामने फल रखकर पंचांग नमस्कार करे, दोनों हाथ जोड़ शिरपर लगावे । फिर कुशल मंगल पूछकर विनयके साथ भूमिपर बैठे । गुरु भी धर्मवृद्धि आदिके द्वारा शिष्य बर्गको सन्तुष्ट करे ।। ४-५ ॥ स्वामिन् ब्रूहि कृपां कृत्वा श्रावकाचारविस्तरम् । तच्छ्रुत्वा श्रीगुरुचापि ब्रूयाद्धर्म तु तम्पति ॥ ६ ॥ हे स्वामिन् ! कृपाकर विस्तारपूर्वक श्रावकोंके आचरणको समझाइये | शिष्यके इस नम्र निवेदनको सुनकर श्रीगुरु भी उसे श्रावक-धर्म अच्छी तरह समझावें || ६ || धर्मकथन | मिथ्यात्वत्यजनं पूर्वं सम्यक्त्वग्रहणं तथा । द्वादशभेदभिन्नानां ब्रतानां परिपालनम् ॥ ७ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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