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सोमसेनभहारकविरचित
ततः पलाशपत्रेण क्षीरमारुहपत्रतः।
खुकवेणाथवा दद्यादादावाज्याहुतिं बुधः ॥ १३४ ॥ यदि उपर्युक्त लकड़ीकी प्राप्ति न हो सके तो ढाक और बड़के पत्तोंका सुक और सुवा (घृत, होमद्रव्यको कुंडमें डालनेके पात्र ) बनवावे । और उनसे प्रथम घृतकी आहुति देवे । गायके पूंछके अग्रभाग सरीखे लंबे मुखका स्रक और नाकके आकार चौड़े मुखका स्रुवा बनवावे । दोनों ही पात्रोंकी लंबाई एक अरनिप्रमाण होनी चाहिए और उनकी डंडी छह अंगुल लंबी होनी चाहिए ॥ १२४॥
गोपुच्छसदृशा सुक च सुवाग्रं नासिकासमम् । दैर्घ्य द्वयोररत्निः स्यान्नाभिदण्डः षडङ्गुलः ॥ १३५ ॥ तद्वयं दर्भपूलेन प्रमृज्यासेचयेजलैः।
काष्ठैः प्रताप्य तद्वन्द्वं ताभ्यां घृतं च होमयेत् ॥ १३६ ॥ उन दोनों पात्रोंको दर्भके पूलेसे पोंछकर उनपर जल सींचे और अग्निपर तपा कर उनसे घृत और होमद्रव्यका होम करे ॥१३५ ॥ १३६ ॥
अग्निज्वाला तु महती तथा कुर्यात् घृताहुतिम् । अधिकेऽनौ गवां दुग्धैः कुशागः परिषेचयेत् ॥ १३७ ॥ त्रिषु कुण्डेषु सादृश्यं कुर्याद्धोमसमानताम् ।
गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निं क्रमाद्यजेत् ॥ १३८ ॥ अग्निमें जो घृताहुति दी जाय वह ऐसी देनी चाहिए जिससे अग्निकी लौ खूब ही ऊंची बढ़े। तथा अग्निके अत्यन्त प्रचण्ड तेज हो जानेपर कुशके अग्रभागसे गायका दूध सोंचे । तीनों कुण्डोंमें एक सरीखा होम करे । किसीमें कमती और किसीमें जियादा न करे । तथा गार्हपत्याग्नि, आहवनीय-अग्नि और दक्षिणाग्निमें क्रमसे होम करे ॥ १३७ ॥ १३८ ॥
तर्पण।
तर्पणं पीठिकामन्त्रैः कुसुमाक्षतचन्दनैः ।
मृष्टाम्बुपूर्णपाणिभ्यां कुर्वन्तु परमेष्ठिनाम् ॥ १३९ ।। पीठिका मंत्रोंका उच्चारण करते हुए पुष्प, अक्षत, चन्दन और जलको अंजलिमें लेकर उससे परमेष्ठीका तर्पण करे ॥ १३९ ॥