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________________ त्रैवर्णिकाचार। २८७ मिलनेपर उनके सम्यग्दर्शन हो सकता है। सम्यग्दृष्टि मरकर नियमसे पांच थावरों, तीन विकलेंद्रियों, असंही पंचेंद्रियों, निगोदियों और कुभोग-भूमियोंमें भी उत्पन्न नहीं होता है; और न इन जीवोंमें सम्यग्दर्शन होता है ।। ४१-४३॥ । क्षायोपशमिक-सम्यक्त्वका स्वरूप। दंसणमोहुदयादो उप्पज्जइ जं पयत्थसदहणं । चलमलिणमगाढं तं वेदगसम्मत्तमिदि जाणे ॥४४॥ दर्शनमोहनीय-सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे आत्मामें जिनोक्त पदार्थोंका जो श्रद्धान होता है उसे वेदक-क्षायोपशमिक-सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ़रूप रहता है। इनका स्वरूप गोम्मटसार जीवकांडसे जानना ।। ४४ ॥ __ औपशमिक-सम्यक्त्वका लक्षण । दंसणमोहुवसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थसदहणं । • उवसमसम्मत्तमिदं पसण्णमलपंकतोयसमं ॥ ४५ ॥ दर्शन मोहनीय-मिथ्यात्वकर्म, सम्यक्मिथ्यात्वकर्म, सम्यक्त्वकर्म, अनंतानुबंधिक्रोध, अनंतानुबंधिमान, अनंतानुबंधिमाया और अनंतानुबंधिलोभ, इन सात प्रकृतियोंके उपशम होनेसे आत्मामें पदार्थों का जो श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। जैसे मलिन जलमें फिटकड़ी वगैरहके डालनेसे मल नीचेको बैठ जाता है और ऊपरसे पानी निर्मल हो जाता है. उसी तरह यह सम्यक्त्व कर्म-मलोंके फल न देनेसे-उदय न आनेसे, अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त निर्मल होता है ॥ ४५ ॥ क्षायिक-सम्यक्त्वका स्वरूप। खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ । तं खाइयसम्मत्तं णिचं कम्मक्खवणहेदु ॥ ४६॥ ऊपर कहे हुए सात प्रकारके क्षय होनेपर आत्मामें जो निर्मल पदार्थका श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे क्षायिक-सम्यक्त्व कहते हैं । यह सम्यक्त्व नित्य है-एकवार उत्पन्न होकर फिर कभी नहीं छूटता है । यह कर्मोंके क्षय करनेमें कारण है ॥ ४६ ॥ वयणहि वि हेहि वि इंदियभयआणयेहि रूवेहिं । वीभच्छजुगुच्छाहि वि तेलोयेण वि ण चालेज्जो॥४७॥ यह सम्यक्त्व वचनोंसे, हेतुओंसे, इन्द्रियोंको भय उपजानेवाले रूपोंसे, बीभत्स्य पदार्थोके देखनेसे. जुगुप्सासे, और तो क्या तीन लोकसे भी चलायमान नहीं होता। भावार्थ-इस सम्यक्त्वको भ्रष्ट करनेके लिए कितने ही कारण क्यों न मिल जायें, पर तो भी यह सम्यक्त्व कभी भी नष्ट नहीं होता है-हमेशह आत्मामें प्रकाशमान रहता है ॥ ४७ ॥ दसणमोहक्खवणा पढवगो कम्मभूमिजादो हु। मणुजो केवलिमूले णिहवगो होइ सम्वत्थ ॥ ४८॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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