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________________ पार्णिकाचार। १८५ मिथ्याशास्त्रेषु पत्प्रोक्तं ब्राह्मणैर्लोभलम्पटैः।। तन देयमजास्त्र्यादि पादत्राणादि हिंसकम् ॥ १४३ ॥ अत्यन्त लोभी ब्राह्मणोंने खोटे खोटे शास्त्रोंमें जो बकरी स्त्री आदिका दान देना लिखा है वह भी न दे तथा पैरके जूते आदि हिंसक चीजें भी न दे ॥ १४३ ॥ दानके पात्र । चैत्ये चैत्यालये शास्त्रे चतुःसंघेषु सप्तसु । सुक्षेत्रेषु व्ययः कार्यो नो चेल्लक्ष्मीनिरर्थिका ॥ १४४ ॥ जिन प्रतिमाके बनवानेमें, जिनमंदिरके बंधवानेमें, शास्त्रोंके लिखवाने तथा जीर्णोद्धार करानेमें और चारों संघोंमें-इस तरह इन सात स्थानोंमें श्रावकगण अपनी लक्ष्मीका व्यय करे; वरना उनकी लक्ष्मी व्यर्थ है-निष्फल है ॥ १४४ ॥ ___ दानको प्रशंसा। भोगित्वाऽद्यन्तशान्तिप्रभुपदमुदयं संयतेऽनप्रदानाच्छ्रीषेणो रुनिषेधाद्धनपतितनया प्राप सर्वोषधर्द्धिम् । प्राक्तजन्मर्षिवासावनशुभकरणाच्छूकरः स्वर्गमयं कौण्डेशः पुस्तका_वितरणविधिनाऽप्यागमाम्भोधिपारम् ॥ १४५ ॥ श्रीषेण महाराजने आदित्यगति और अरिंजय नामके चारणमुनियोंको आहारदान दिया था, जिसके प्रभावसे वे प्रथम उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुए। फिर कई बार स्वर्गीय सुखोंको भोग कर अन्तमें शान्तिनाथ तीर्थकरका पद पाकर मुक्तिको गये। यहांपर केवल कारणमात्र दिखाया है अर्थात् वे आहार देनेसे ही तीर्थकर नहीं हो गये थे, किंतु उनने आहार-दानके बलसे ऐसे पुण्य और पदको प्राप्ति की थी, जिसकी वजहसे उनने तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया था। यदि वे आहार-दान न देते तो उन्हें वह पुण्य और पद नहीं मिलता कि, जिस पदमें जिस पुण्योदयसे वे तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर सके थे। इसलिए उनके तीर्थकर पदमें भी परंपरासे आहारदानही कारण है । देवकुल राजाके यहां एक कन्या बुहारी दिया करती थी। उसने औषध-दान देकर एक मुनिको नीरोग किया था। उसके प्रभावसे वह मरकर शेठ धनपतिकी वृषभसेना नामकी पुत्री हुई और उसे वहां ज्वर, अतिसार आदि रोगोंको दूर करनेवाली सौषधि नामकी ऋद्धि प्राप्त हुई । एक शूकरने अपने पहिले भवमें मुनियोंके लिए बसतिका बनवानेका आभप्राय किया था और उसने अपने उसी शूकर भवमें एक मुनिकी रक्षा की थी। इन दोनों कार्योंमें जो उसके शुभ परिणाम हुए थे उन परिणामोंसे वह मरकर सौधर्म-स्वर्गमें एक ऋद्धिधारी देव हुआ था । तथा गोविंदनामका एक ग्वालिया था । उसने शास्त्रकी पूजाकर वह शास्त्र मुनियोंको भेंट किया था। इसलिए उस दानके प्रभावसे वह कौंडेश नामका मुनि होकर द्वादशांग श्रुतज्ञान-महासागरका पारगामी हो गया था। इस तरह चार प्रकारके दानोंमें ये चार प्रसिद्ध हुए हैं। इनके अलावा और भी बहुतसे हुए हैं । उनमेंसे केवल चारके नाम दिखाये हैं ॥ १४५॥ २४
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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