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उन ग्रन्थोंमें कोई अतथ्य विषय नहीं मिला । मुझे अफसोस हुआ और नमूना मिला कि लोग जिस विषयको नहीं चाहते हैं वे किस ढंगसे उन ग्रन्थोंकी कूटता उड़ाते हैं । खैर, कैसा भी हो उनकी कूटताने मेरी आस्थाको जैनागमपर औरभी दृढ़ बना दिया । मेरी रुचि वृद्धिमें खंडेलकुलभूषण पंडित धन्नालालजी काशलीवाल भी कारणीभूत हैं उनकी दयासे मुझे इस विषयका बहुतसा सद्बोध प्राप्त हुआ है अतः मैं इस कृतिको उन्हीं के करकमलों में सादर समर्पण करता हूँ ।
ग्रन्थकर्ताका परिचय |
इस ग्रन्थ के कर्ता पट्टाचार्य सोमसेन महाराज मूलसंघ के अन्तर्गत पुष्करगच्छके अधिपति थे । उनके गुरुका नाम गुणभद्रसूरि था । उन्होंने अपने जन्मसे किस स्थानको सुशोभित किया था और वे कहांकी गद्दी के अधिपति थे इस विषयका उन्होंने कोई परिचय नहीं दिया है । सिर्फ इसके कि उन्होंने वि. स. १६६७ में इसग्रन्थ को लिखकर पूर्ण किया है । अतः सोमसेन सूरिका समय विक्रमकी १७ वीं शताब्दी समझना चाहिए । इसके अलावा हम उनका विशेष परिचय देने में असमर्थ हैं।
ग्रन्थकर्ताका ज्ञान और आचरण ।
ग्रन्थ परिशीलनसे पता चलता है कि ग्रन्थकर्ता जैन शास्त्रोंके अच्छे ज्ञाता थे । मंत्रशास्त्र, ज्योतिःशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, निमित्तशास्त्र और शकुनशास्त्रों के भी वे अच्छे ज्ञाता प्रतीत होते हैं । उनकी वर्णीचारमें भी असाधारण गति थी, वे वर्णाचारके आचरण करनेवालोंको ऊंची दृष्टि से देखते थे । इस विषयमें इस ग्रन्थके कई अध्यायोंके अन्तके श्लोक ही साक्षीभूत हैं । वे अद्वितीय थे । उन्होंने स्थान स्थान में संयम पालनेकी खूबही प्रेरणा की है । यद्यपि वे भट्टारक थे पर आजकल जैसे भट्टारक नहीं थे वे अच्छे विद्वान् थे और संयमी थे । जो लोग भट्टारक नाम सुनते ही चिड़ जाते हैं वे भारी भूल करते हैं ।
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ग्रन्थ - कर्ताकी धार्मिक श्रद्धा ।
बहुतसे विषय ऐसे हैं जिनकी परंपरा उठ गई है, आज वे ग्रन्थोंके परिशीलन के अभाव से लोगों को ऐसे मालूम पड़ने लगे हैं कि मानों वे जैनमत के हैं ही नहीं । अत एव लोग चट कह बैठते हैं कि यह बात तो जैनमत की प्रतीत नहीं होती । यह तो ग्रन्थकर्तीने परमतसे लेली है इत्यादि । इस विषयमें हमें इतना ही कहना है कि वे अभी अगाध जैन साहित्यसे अनभिज्ञ हैं ऋषिप्रणीत जैनसाहित्य में ऐसी ऐसी बातें हैं जो उन्होंने न सुनी हैं और न देखी हैं । महापुराण जिसमें कि संस्कारों का कथन है उसके विषय में भी वे ऐसा कह देते हैं कि जिनसेनस्वामीने यह संस्कारका विषय ब्राह्मण-संप्रदायसे ले लिया है। जब उन पूज्य ऋषियों के विषय में भी ऐसी ऐसी कल्पनाएं उठ खड़ी हुई हैं तब सोमसे
के विषय में ऐसी कल्पनाएँ करलेना तो आसान बात है । परमतसे वही उन बातोंको ग्रहण करेगा जो परमत से रुचि रखता होगा और जैनियोंको परमतावलंबी बनाना चाहता होगा । पर हम देखते हैं कि सोमसेनसूरिकी न परमतसे रुचि ही थी और न वे जैनों को परमतावलंबी ही बनाना चाहते थे वे तो एकदम परमतावलंबियोंसे मौन रहने तकका उपदेश देते हैं । ऐसी दशामें जैनोंको परमतकी शिक्षा ही कैसे दे सकते हैं। यथा