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________________ सोमसेमभाधारकाविरक्षित परीक्षा नहीं है जो अपने मतलबकी बातको मान लेना और बाकीको छोड़ देना। वह कहाँका न्याय है ? मानी भी वह बात जा सकती है जो निश्चित हो। पहले जो लोग कुछ ही कहते थे, आब के कुछ ही कहते हैं तो क्या पूर्वापर विरुद्ध वचन अथवा उस वचनका लिखने बोलनेवाला प्रमाणभूत हो सकता है, कभी नहीं । जिनने गुरुमुखसे शास्त्र ही नहीं देखे हैं, न उनका मनन ही किया है, न उस भाषाकी योग्यता ही रखते हैं, जिनके वचनोंको पढ़कर अथवा सुनकर जनता हँसी उड़ाती है और उनकी गलतियों पर खेद जाहिर करती हैं ऐसे पुरुष भी प्रमाण रूप माने जायें और उनकी बातोंमें कुछ तथ्य समझा जाय तो मलीकूचोंमें फिरनेवाले मनमाना चिल्लानेवाले पुरुष भी क्यों न अच्छे माने जायें और क्यों न उनकी बातोंमें सार समझा जाय । इस लिए कहना पड़ेगा कि जिस परीक्षामें अमूल्य रत्न फेंक कर निःसार काचका टुकड़ा ग्रहण करना पड़े यह परीक्षा किसी कामकी नहीं है। यदि जो जो विषय हिंदूधर्मसे मिलते हैं वे वे हिंदुओंके हैं तो जैनोंके घरका क्या है ? जैनोंके पास ऐसा कोई विषय नहीं है जो जैनधर्मसे बाथ लोमोके पास न पाया जाय । जैनोंके हर एक विषय किसी न किसी रूपमें सभी मतोंमें पाये जायेंगे । जैसे वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, स्नान करना, खाना, पीना, सोना, बैठना, पूजा करना, प्रतिष्ठा करना, स्वर्ग-नरककी. व्यवस्था, पुण्य-पापक संपादन, व्रतधारण, संन्यासधारण, तीर्थयात्रा, हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चौरी न करना, कुशील सेवन न करना, ईश्वरकी स्तुति करना, जीवका अस्तित्व स्वीकार करना, कर्मोके निमित्तसे' संसारमें पड़ा रहना, कर्मोंके अभावमें मुक्तिका होना । तब कहना पड़ेमा कि. इनमें जैनोंका कुछ भी नहीं है । ये सब बाहरसे ही आये हैं। अब न मालूम जैनोंके पास अपने घरकी पूँजी क्या रह जाती है। इस लिए ऐसे मनुष्योंकी बालों पर श्रद्धान नहीं करना चाहिए । जो लोग शासनदेवोंके नामसे ही चिढ़ते हैं और निरी मनमानी ऊटपटांम शंकायें ही उठाया करते हैं वे भी ऋषिप्रणीत मार्गकी अवहेलना करते हैं । श्रावकोंके कई दर्जे हैं । जिस दर्जेका जो श्रावक है उस दर्जेके श्रावकको वैसा करना अनुचित नहीं है । यह तर्पण आदिका विधान जैनधर्मसे बाहरका नहीं है । किन्तु जैनधर्मका ही है । ऋषिप्रणीत प्रतिष्ठापाठोंमें ये सब विषय स्पष्ट सतिसें विस्तारपूर्वक लिखे हुए हैं ॥ १० ॥ असंस्काराश्च ये कोचिजलाशाः पितरः सुराः। तेषां सन्तोषतृप्त्यर्थं दीयते सलिलं मया ॥११॥ जिनका उपनयन आदि संस्कार नहीं हुआ है ऐसे कोई हमारे कुलके पुरुष मरकर पितर-सुर (व्यन्तर जातिके देव ) हुए हों और जलकी आशा रखते हों तो उनके सन्तोषके लिए मैं जल समर्पण करता हूँ । भावार्थ-इस श्लोकमें असंस्कार पद पड़ा है। इससे मालूम होता है कि जिन पुरुषोंका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता है वे प्रायः मरकर व्यन्तर होते हैं। तथा ऐसा आर्षवाक्य भी है । यह बात सिद्धान्तसे निश्चित है कि व्यन्तरोंका निवास मध्यलोककी सम्पूर्ण पथिवीपर है। कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ कि व्यन्तर न रहते हों । उनका विचित्र स्वभाव हैं । यद्यपि वे स्वयं न कुछ खाते हैं और न पीते हैं, परन्तु फिर भी लोकमें वे ऐसी क्रियायें करते हैं जिनसे मालूम पड़ता है कि मानों ऐसा कार्य करते हों । इसी लिए अज्ञानी लोग यह कहा करते हैं कि
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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