SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवोंको मांस खाते, गायका गौत (पेशाब ) पीते हमने देखा है। यह हम कह चुके हैं कि वे स्वयं कुछ खाते पीते नहीं हैं । परंतु उनका स्वभाव है कि वे मनुष्योंके शरीरमें प्रवेश करते हैं और मनुघ्योंसे हर एक प्रकारके कार्य करा कर नाना प्रकारकी क्रीड़ा करते हैं। वे ऐसी क्रीड़ा करते हैं इस विषयमें किसीकी सन्देह हो तो स्वामी अकलंकदेवका बनाया हुआ राजवार्तिक ग्रन्थ देख लें । उसमें लिखा है कि उनकी प्रवृत्ति प्रायः क्रीड़ानिमित्तक है । अतः यह बात सिद्ध है कि वे ऐसी क्रीड़ायें करते हैं । यह बात केवल आनुमानिक और आगमसे ही प्रसिद्ध नहीं, किन्तु प्रत्यक्षमें इस समय भी अनेक व्यन्तर इस प्रकारकी क्रीड़ा करते हुए देखे जाते हैं। देव-देवियोंके ऊपर जो अनगिनतीके बकरे आदि चढ़ाये जाते हैं यह भी पूर्व समयमें उनके द्वारा किये हुए उपद्रवोंका फल है। तथा शास्त्रोंमें यह बात भी पाई जाती है कि जो जीव मरकर व्यन्तर होते हैं वे ही प्रायः उपद्रव करा करते हैं और उनसे कुछ क्रियायें करा कर शान्त हो जाते हैं। यह सब महापुराणादि शास्त्रोंमें व्यन्तर देवोंकृत बाधा बताई गई है । तथा यह भी बताया गया है कि इस तरह करने पर वह उपद्रव शान्त हुआ । जैसे होलिका आदिकी कथामें प्रसिद्ध है। सारांश ऐसा है कि व्यन्तरोंका अनेक प्रकारका स्वभाव होता है । अतः किसी किसीका स्वभाव जल ग्रहण करनेका है। किसी किसीका वस्त्र निचोड़ा हुआ जल लेनेका है । ये सब उनकी स्वभाविकी क्रियायें हैं । वर्तमानमें भी ये देव ऐसा करते हुए देखे जाते हैं । इससे यह बात तो स्पष्ट हो चुकी कि व्यन्तरोंका सर्वत्र निवास है और वे नाना प्रकारकी क्रीड़ा करते हैं । अतः यह लिखना कि जैनसिद्धान्तके अनुसार न तो देव पितरगण पानीके लिए भटकते या मारे मारे फिरते हैं और न तर्पणके जलकी इच्छा रखते हैं या उसको पाकर तृप्त और सन्तुष्ट होते हैं कितना अयुक्त है । जैनशास्त्रोंमें साफ लिखा हुआ है कि व्यन्तरोंका ऐसा स्वभाव है और वे क्रीड़ानिमित्त ऐसा करते हैं ऐसी क्रियायें करा कर वे शान्त होते हैं । जो बाते जैनशास्त्रोंमें साफ साफ पाई जाती है उनके ऊपर भी पानी फेरा जाता है । यद्यपि वे वस्त्र निचोड़ा जल पीते नहीं हैं, परंतु उनका स्वभाव है कि वे ऐसा कराते हैं और करानेसे खुश होते हैं । अतः इस विषयमें और भी जितना लिखते हैं वह भी सब ऊटपटांग ही है । लेखकको विश्वास जब हो कि वे लेखकोंके पास आवें और उनको अपना कर्तव्य दिखलावें । लेखकोंको जैनशास्त्रोंमें विश्वास न होनेके कारण या उसकी पूरी पूरी जानकारी न होनेके कारण या भोले भाले लोगोंको बहकाकर अपनी प्रतिष्ठा आदि चाहनेके कारण मजबूर होकर ऐसा लिखना पड़ा है। ऐसा लिखनेसे तो यही जाहिर होता है कि जो विषय लेखकोंकी आँखोंके सामने नहीं हैं ये हैं ही नहीं और न कभी ऐसे कोई कार्य होते थे । अब प्रश्न यह है कि क्या श्रावकोंको एसा करना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि श्रावकोंके अनेक दर्जे हैं, यद्यपि वे संख्या रूपमें भी गिनाये गये हैं, परन्तु फिर भी उनमें भी ऐसे बहुतसे सूक्ष्म सूक्ष्म अंश होते हैं जैसे मिथ्यात्व कर्मके अनेक अंश हैं। किसीके मिथ्यात्व किसी प्रकारका है और किसीके किसी प्रकारका है-सबके एक सरीखा नहीं है, परन्तु फिर भी वह मिथ्यात्व ही है । इसी तरह श्रावकोंके कुछ अंश ऐसे भी हैं जो अपने दर्जेमें ऐसा करते हैं और उस दर्जेमें वे ऐसा कर सकते हैं । ऐसा करनेसे उनका व्यवहारसम्यक्त्व नष्ट नहीं होता। व्यंतरोंको जल किसी उद्देश्यसे नहीं दिया जाता है। क्योंकि यह बात श्लोक ही साफ कह रहा है कि कोई बिना संस्कार किये हुए मर गये हों, मरकर व्यन्तर हुए हों और मेरे हाथसे जल लेनेकी वांछा
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy