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त्रैवर्णिकाचार ।
निरन्तर स्वच्छ जलसे स्नान करना, आचमन करना और धुले हुए साफ कपड़े पहनना यह शरीरकी शुद्धि है । तथा सूतक आदि पापोंकी शुद्धि करना बाह्यशुद्धि है । सारांश स्नान, आचमन आदि शरीरकी बाह्यशुद्धि है ॥ १० ॥
आचारः प्रथमो धर्मः सर्वेषां धर्मिणां मते । गर्भाधानादिभेदैश्च बहुधा स समुच्यते ॥ ११ ॥
यदि देखा जाय तो सभी आस्तिक धर्मोंमें आचरण सबसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है । वह धर्म गर्भाधान आदिके भेदसे अनेक प्रकारका कहा गया है ॥ ११ ॥
पूर्वोक्तविधिना कृत्वा सामायिकादिसत्क्रियाम् ।
गृहकार्यं तथा चित्ते चिन्तनीयं गृहस्थकैः ॥ १२ ॥
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पहले अध्यायमें जो सामायिक आदि प्रशस्त क्रियाएँ कही गई हैं, उनको पूर्वोक्त विधिके अनुसार करके, गृहस्थोंको घरके सब कामोंका मनमें विचार करना चाहिए कि आज हमें दिनभर में क्या क्या कार्य करने हैं ॥ १२ ॥
कालं देहं स्थितिं देशं शत्रुं मित्रं परिग्रहम् ।
आयं व्ययं धनं वृत्तिं धर्म दानादिकं स्मरेत् ॥ १३ ॥
कालका, शरीरका, स्थितिका, देशका, शत्रुका, मित्रका, कुटुम्बका, आमदका, खर्चका, धनका, आजीविकाका, धर्मका और दानका हृदयमें चिन्तवन करे । भावार्थ - यह समय अमुक कार्य करनेके योग्य है या नहीं । मैं इस शरीर के द्वारा यह कार्य कर सकूँगा या नहीं, इत्यादिका विचार भी उसी वक्त करे ॥ १३ ॥
तथाऽपराह्नपर्यन्तं प्राह्णादारभ्य तद्दिने ।
यत्कर्तव्यं विशेषेण तदधीत हृदि स्फुटम् ॥ १४
तथा उसी दिन सुबह से लेकर शाम तक के कर्तव्योंका हृदयमें और भी स्पष्ट रीतिसे विचार करे ॥ १४॥ - बहिर्दिशागमन | समतास्थानकं त्यक्त्वा गृहीत्वा पूर्ववस्त्रकम् । सर्ववस्त्रं विना वस्त्रे धातव्ये चाधरोत्तरे ।। १५ ॥
जब अपने हृदय पटल पर उपर्युक्त कर्तव्योंको भले प्रकार अंकित कर चुके उसके बाद उस सामायिककी जगहसे उठ खड़ा होवे और पहले जिन कपड़ोंको पहने था उनको पहन ले अथवा उन कपड़ोंको वहीं रहने देकर एक धोती पहन कर डुपट्टा ओढ़ ले ॥ १५ ॥