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________________ ६५. - त्रैवर्णिकाचार । - इत्येवं कथितो धर्मो मुनीनां मुक्तिसाधकः । संक्षेपतो मया ग्रन्थे वर्णाचारमसङ्गतः ॥ १२१ ॥ इस तरह मैंने वर्णाचारके प्रसंगको पाकर इस ग्रंथमें संक्षेपसे मुक्तिके साधक मुनिधर्मका वर्णन किया ॥ १२१ ॥ आदौ श्रीवर्णलाभः सुखकरकुलचर्या गृहाधीशता च । सर्वेभ्यश्च प्रशान्तिर्मनसि कृतगृहत्यागता वा सुदीक्षा ॥ अध्यायेऽस्मिन्गरिष्ठाः शिवसुखफस्दा वर्णिता धर्मभेदा । ये कुर्वन्तीह भव्याः सुरनरपतिभिस्ते लभन्ते सुपूजाम् ॥ १२२ ॥ इस बारहवें अध्यायमें मोक्ष-सुखरूप फल देनेवाली धर्मका भेद-स्वरूप वर्णलाभ, कुलचो, गृहीशिता, प्रधान्ति, गृहत्याग और दीक्षा-इन क्रियाओंका वर्णन किया जो भव्य इन क्रियाओं को करता है वह इन्द्र और राजाओंके द्वारा पूजा जाता है ॥ १२२ ॥ धर्मोपदेशं प्रवदन्ति सन्तो धन्यास्तु ते ये सुचरन्ति भव्याः। पूज्याः मुरैर्भूपतिभिश्च नित्यं तेषां गुणान् वाञ्छति सोमसेनः॥ १२३॥ ___सजन पुरुष धर्मोपदेश करते हैं। वे पुरुष धन्य हैं जो उस उपदेशका आचरण करते हैं। तथा वे देवों और राजाओं द्वारा पूजे जाते हैं । उनके उन सद्गुणोंकी सोमसेनसूरि वाञ्छा करता है ॥ १२३ ॥ इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारनिरूपणे भट्टारकश्री सोमसेन विरचिते वर्णलाभादिपञ्चक्रियावर्णनो नाम द्वादशोऽध्यायः समाप्तः ॥ १२ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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