SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रैवर्णिकाचार दुर्गतावायुषों बन्धात्सम्यक्त्वं यस्य जायते । गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाऽप्यल्पतरा स्थितिः ॥ ५३ ॥ जिस मनुष्यके दुर्गति सम्बन्धी आयुका बंध हो जाने के पीछे सम्यक्त्व होता है, उसके उस गतिका छेद नहीं होता-उसे उस गतिमें अवश्य जाना ही पड़ता है । तौभी उसके आयुकर्मकी स्थिति बहुत ही थोड़ी रह जाती है ।। ५३ ॥ सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुदरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः॥ ५४॥ जो जीव व्रतोंसे रहित हैं, जिनके कोई तरहका व्रत नहीं है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे पवित्र हैं, वे मरकर नरक और तिर्यंच गतिमें नहीं जाते, स्त्री और नपुंसक नहीं होते, खोटे कुलमें उत्पन्न नहीं होते, विकृत शरीरवाले नहीं होते, अल्प आयुवाले नहीं होते, और न दरिद्री होते हैं । किन्तु-॥ ५४ ॥ ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः। उत्तमकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥ ५५ ॥ वे सम्यग्दर्शनसे परम पवित्र जीव, मनुष्य-गतिमें भारी कान्तिमान, महा तेजस्वी, परिपूर्ण विद्यावान, उत्कृष्टशक्तिशाली, भारी यशस्वी और प्रचुर सम्पत्तिके स्वामी होते हैं, उत्तम कुल में जन्म लेते हैं; धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी साधना करनेवाले होते हैं, और मनुष्योंमें, सिरके तिलकके समान, श्रेष्ठ होते हैं ॥ ५५ ॥ अष्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः । अमराप्सरसा परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ।। ५६ ॥ अणिमा महिमा लघिमा गरिमाऽन्तर्धानकामरूपित्वम् । प्राप्तिः प्राकाम्यवशित्वशित्वाप्रतिहतत्वमिति वैक्रियकाः॥ ५७ ॥ स्वर्गमें वे जिनभक्त सम्यग्दृष्टि जीव आठ ऋद्धियोंकी पुष्टिसे सन्तुष्ट और प्रचुर शोभासे युक्त होते हैं । तथा वे देव और देवांगनाकी सभाओंमें बहुत कालपर्यन्त आनंदसे क्रीड़ा करते हैं। १ अणिमा, २ महिमा, ३ लघिमा, ४ गरिमा, ५ अंतर्धान, ६ कामरूपित्व, ७ प्राप्ति, ८ प्राकाम्य ९ वशित्व, १० ईशित्व, और ११ अप्रतिहतत्व, ये ग्यारह ऋद्धियां हैं, जिनमें से स्वर्गमें आठ प्राप्त होती हैं ।। ५६-५७ ॥ नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् । वतयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः क्षत्रमौलिशेखरचरणाः॥ ५८ ॥ ये सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्य-गतिमें और भी भारी प्रभावशाली होते हैं। यहां वे नवनिधियों और चौदह रत्नोंके अधिपति होते हैं; षट्खंड पृथ्वीके स्वामी होते हैं, पृथ्वीतलपर एकछत्र राज्य करते है. और जिनके चरणोंमें बत्तीस हजार राजे-महाराजे सिर झुकाते हैं। इसके अलावा और भी कई तराके उत्तम कार्यों को प्राप्तकर वे इस सम्यग्दर्शनके बलसे मुक्तितक जाते हैं ।। ५८ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy