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________________ २९० सोमसेनभट्टारकविरचित सम्यग्ज्ञानका लक्षण। अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ ५९॥ जो वस्तुस्वरूपको जितना उसका स्वरूप है उससे न तो न्यून जानता है, न अधिक जानता है, और न विपरीत जानता है किन्तु जैसी उसकी असलियत है वैसा ही संदेहरहित जानता है, उसे आगमके वेत्ता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं । भावार्थ--संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरहित वस्तुके स्वरूपका जानना सम्यग्ज्ञान है ॥ ५९ ।। प्रथमानुयोग-ज्ञान । प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥६॥ जो सम्यग्ज्ञान, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चार पुरुषार्थोंका भले प्रकार निरूपण करनेवाले पुण्यमयी (अर्थात् जिनके सुननेसे पुण्यकी प्राप्ति होती है) चरित्र और पुराणको जानता है और जो रत्नत्रय तथा ध्यानका खजाना है उसे प्रथमानुयोग-ज्ञान कहते हैं । भावार्थ-भगवान समन्तभद्रस्वामी परिपूर्ण परीक्षाप्रधानी थे । उनने हरएक पदार्थकी खूब अच्छी तरह जांच की है, जो उनके बनाये हुए आप्तमीमांसा ग्रन्थसे प्रकट है। उन्हींका कहना है कि, जिसमें एक पुरुषकी जीवनी लिखी जाती है उसे चरित कहते हैं; और जिसमें तिरेसठ शलाकाके पुरुषोंकी जीवनी लिखी जाती है उसे पुराण कहते हैं । ऐसे चरित्र और पुराणोंमें चारों पुरुषार्थोंका कथन रहता है । इन पुराणोंके पढ़नेसे पढ़नेवालोंको पुण्यकी प्राप्ति होती है। इनके पढ़नेसे रत्नत्रय और ध्यानकी प्राप्ति होती है। इसलिए पुराणोंकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए; इन्हें गप्प नहीं सम. झना चाहिए । ये वस्तुके वास्तविक स्वरूपको प्रकट करनेवाले हैं। इसीलिए इनका ज्ञान प्रथमा. नुयोग नामका ज्ञान है, और वह सम्यग्ज्ञान है ॥ ६ ॥ करणानुयोग-ज्ञान । लोकालोकविभत्ते युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिव तथा मतिस्वैति करणानुयोगं च ॥ ६१ ॥ जोसम्यग्ज्ञान लोक और अलोकके विभागको, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी-रूप युगोंकी उलटा-पलटीको और चारों गतियोंकी व्यवस्थाको दर्पणकी भांति स्पष्ट दिखाता है उसे करणानुयोग ज्ञान कहते हैं। भावार्थ-जैसे दर्पण अपने सामने रक्खे पदार्थको स्पष्ट दिखाता है वैस ही करणानुयोग शास्त्र इन बातोंको स्पष्ट दिखाते हैं । इनके ज्ञानको करणानुयोग-ज्ञान कहते हैं । ६१ ॥ चरणानुयोग-ज्ञान । गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षांगम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥ ६२ ॥ सम्यग्ज्ञान, गृहस्थों और मुनियोंके चारित्रकी उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षाके कारण चरणानुयोग शाबको जानता है । भावार्थ-जिसमें मुनि और गृहस्थोंके चारित्रका कथन हो, उसकी वृद्धि और
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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