SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रैवर्णिकाचार । १७ जिसके ऊपर-नीचे रेफ है और जो शून्य - सहित हकारसे युक्त ( हैं ) है, ब्रह्मस्वर ( ॐ ) से विशिष्ट है, जिस पर कमलके पत्तोंके सन्धिभागमें तत्त्वाक्षर लिखे हुए हैं, प्रत्येक पत्रके अन्तमें अनाहत मंत्र लिखा हुआ है और जो ह्रींकारसे वेष्टित है; तथा स्वर, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग और शवर्ग ये आठ वर्ग जिसके हर पत्ते पर लिखे हुए हैं ऐसे परम देव — सिद्धचक्र का जो पुरुष ध्यान करता है वह मुक्तिके प्यारका पात्र बन जाता है और वैरीरूपी हाथीको वश करनेके लिए सिंहके समान हो जाता है ॥ ६८ ॥ उर्ध्वाधो रेफसंयुक्तं सपर बिन्दुलाञ्च्छितम् । अनाहतयुतं तत्त्वं मन्त्रराजं प्रचक्षते ॥ ६९ ॥ हें ॥ ऊपर-नीचे जिसके रेफ है और जो शून्यसे युक्त है ऐसे अनाहत युक्त हकारको मंत्रराज कहते हैं ॥ ६९ ॥ कारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥ ७० ॥ ॐ नमः ॥ ओंकार अक्षर बिंदु से सहित है, जिसका मुनिगण ध्यान करते हैं उस सब मनोरथोंके पूरनेवाले और मोक्षको देनेवाले ॐको नमस्कार है ॥ ७० ॥ अवर्णस्य सहस्रार्ध जपन्नानन्दसम्भृतः । प्रत्येकोपवासस्य निर्जरां निर्जितास्रवः ॥ ७१ ॥ जो प्रीतिपूर्वक इस ओंकारके पाँचसौ जप करता है वह नवीन कर्मोंके आस्रवको रोकता है और एक उपवासकी निर्जरा करता है । भावार्थ - एक उपवासके करनेसे जो फल मिलता है वह इस ओंकारके पाँच सौ जप करनेसे प्राप्त हो जाता है ॥ ७१ ॥ हवर्णान्तः पार्श्वजिनोऽधो रेफस्तलगतः स धरेन्द्रः । तुर्यस्वरः सबिन्दुः स भवेत्पद्मावतीसञ्ज्ञः ।। ७२ ॥ ह्रीं इस मंत्र में जो हकार है वह पार्श्वजिनका वाचक है, नीचेकी तरफ जो रेफ है वह धरन्द्रका वाचक है और जो इसमें बिन्दु सहित ईकार है वह पद्मावती — शासन देवी--का वाचक है । भावार्थ - ह्रीं यह मंत्र पद्मावती, धरणेन्द्र सहित पार्श्वजिनका द्योतक है ॥ ७२ ॥ त्रिभुवनजनमोहकरी विधेयं प्रणवपूर्वनमनान्ता । ॐ ह्रीं नमः । एकाक्षरीति सञ्ज्ञा जपतः फलदायिनी नित्यम् ॥ ७३ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy