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________________ सोमसेनभट्टारकविरचित व्याधि महोदरी कुर्याद्धृद्रोगं हृदये कशा । अङ्गहीना सुतं हन्याच्छुष्कजङ्घा नरेन्द्रहा ॥ ३८ ॥ पादहीना जनं हन्यात्कटिहीना च वाहनम् । ज्ञात्वैवं पूजयेज्जैनी प्रतिमां दोषवर्जिताम् ॥ ३९॥ प्रतिमा की दृष्टि यदि टेढ़ी हो तो प्रतिमा बनवाने वालेके धनका नाश होता है, सबसे वैर विरोध पड़जाता है, और उसको नाना प्रकारके भय उत्पन्न होते रहते हैं । यदि उसकी दृष्टि नीचेको हो तो पुत्रका नाश होता है, यदि दृष्टि ऊपरको हो तो स्त्रीका मरण होता है, और वह शोक, उद्वेग सन्ताप और धनका क्षय करती है । यदि प्रतिमा शान्त हो तो वह सौभाग्य और पुत्रोत्पत्तिके लिए और शान्तिको बढानेवाली होती है; सदोष प्रतिमा कभी न बनवाना चाहिए, क्योंकि वह अशुभ करनेवाली होती है । रुद्राकार प्रतिमा स्वामीका नाश करनेवाली और कृश अंगवाली प्रतिमा द्रव्यका क्षय करनेवाली होती है । सिकुडे हुए अंगवाली प्रतिमा कुलका क्षय करती है, चिपटी दुःख करनेवाली होती है, नेत्ररहित प्रतिमा नेत्रका विध्वंस करनेवाली होती है । मुखरहित प्रतिमा भोगोंको हरण करने वाली होती है । बड़े पेटवाली व्याधि उत्पन्न करती है, हृदयमें कृश प्रतिमा हृदयमें रोग पैदा करती है, अंगहीन प्रतिमा पुत्रका नाश करती है, शुष्क जंघावाली राजाका घात करनेवाली होती है पैरहीन प्रतिमा मनुष्योंका क्षय करती है। कटिहीन प्रतिमा सवारीके वाहन आदिका क्षय करनेवाली होती है। इस लिए इन सब दोषोंको जानकर जैनियोंको निर्दोष प्रतिमाकी पूजा करना चाहिए ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ प्रतिष्ठां च यथाशक्ति कुर्याद्गुरूपदेशतः । स्थिरं चानुचलं बिम्बं स्थापयित्वात्र पूजयेत् ॥ ४० ॥ गुरुके उपदेशानुसार अपनी शक्ति-माफिक प्रतिमा बनवावे । तथा स्थिर किंवा चल प्रतिमाकी स्थापना कर उसकी पूजा करे ॥४०॥ गिरस्तोंके घरोंमें रखने योग्य प्रतिमा। द्वादशांगुलपर्यन्तं यवाष्ठांशादितः क्रमात् । स्वगृहे पूजयेगिम्बं न कदाचित्ततोधिकम् ॥ ४१ ॥ अपने घरमें यवके आठवें भागको आदि लेकर क्रमसे बारह अंगुलपर्यन्तकी प्रतिमाकी पूजा करें इससे अधिक आकारवाली प्रतिमाकी घरमें पूजा कभी न करे । भावार्थ-घरमें प्रतिमा कमसे कम जौके आठवें हिस्से प्रमाण और जियादासे जियादा बारह अंगुल-एक वेंत प्रमाण विराजमान करे इससे अधिक नहीं ॥४१॥ १ न वितस्त्यधिकां जातु प्रतिमा स्वगृहेऽर्चयेत् ।
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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