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________________ सोमसनभट्टारकविरचिंत- नं० ७७ और ७८ वें श्लोक आदिपुराणके हैं। इसके बाद आदिपुराणमें इसी क्रिया यह और भी बताया है कि अपने सुसंस्कारोंका उद्बोधन करने के लिए और वैयात्यकी ख्यातिके लिए भी इसे व्याकरणशास्त्र और न्यायशास्त्रका अध्ययन करना चाहिए। श्रावकाचार पढ़ने के बाद इनके पढ़नेमें कुछ दोष नहीं है । ज्योतिःशास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशास्त्र, और गणितशास्त्र भी उसे विशेष रीतिसे पढ़ने चाहिए। जब वह विद्या पढ़ चुके उसके बाद उसके व्रतावतरण-पूर्वोक्त व्रत छूट जाते हैं। क्योंकि वे व्रत एक विशेष विषयको लिये हुए थे। बाद वह अपने स्वाभाविक व्रतोंमें स्थित होजाता है। मधुत्याग, पंचउदुंबर फलोंका त्याग, और स्थूल-हिंसादि पंच पापोंका त्याग ये सब व्रत उसके सार्वकालिक जन्मपर्यन्त होते हैं। व्रतावतरणं चेदं गुरुसाक्षिकृतार्चनम् । वत्सरात् द्वादशादूर्ध्वमथवा प्रोडशात्परम् ॥ ७९ ॥ वस्त्राभरणमाल्यादिग्रहणं गुर्वनुज्ञया ।। शस्त्रोपजीविवर्यश्चेद्धारयेच्छस्त्रमप्यदः॥ ८ ॥ वैश्यश्चेव्यवहारादिव्यापारं कारयेन्मुदा। दोषे जाते त्रयो वर्णोः प्रायश्चित्तं हि कुर्वते ॥ ८१॥ बारहवें अथवा सोलहवें वर्षके बाद यह व्रतावतरण क्रिया होती है। इसमें भी गुरुकी साक्षीसे पूजा, होम आदि किये जाते हैं। गुरुकी सम्मतिके अनुसार वस्त्र, आभूषण, माला आदि ग्रहण करे । और यदि वह क्षत्रिय हो तो शस्त्र धारण करे, और वैश्य हो तो व्यापार करे। तीनों वर्णके मनुष्य यदि कोई उनके हाथसे अपराध हो गया हो तो प्रायश्चित्त लें ॥ ७८-८१ ॥ दोष और प्रायश्चित्त । .. मद्यमांसमधुं मुंक्ते अज्ञानात्पलपञ्चकम् । उपवासत्रयं चैकमक्तं द्वादशकं तथा ॥ ८२ ॥ अन्नदानाभिषेकाश्च प्रत्येकाष्टोत्तरं शतम् । तीर्थयात्राद्वयं पुष्पाक्षतान्दद्यात्स्वशक्तितः॥ ८३॥ यदि अज्ञानवश बीस तोलापर्यन्त मद्य, मांस और मधु खा लिया गया हो तो तीन उपवास, बारह एकाशन, एक सौ आठ अन्नदान और इतने ही स्नान करे; दो बार तीर्थयात्रा करे और अपनी शक्तिके अनुसार पुष्प और अक्षत देवे ।। ८२-८३ ॥ " म्लेच्छादीनां च गेहे तु भुक्ते त्रिंशदुपोषणम् । एकभुत्त त्रिपञ्चाशत्पात्रदानशतद्वयम् ॥ ८४ ॥ एका गौः पंच कुम्भाश्चाभिषेकानां शतद्वयम् । पुष्पाक्षतं तीर्थयात्राद्वयं कुर्याद्विशेषतः ॥ ८५ ॥ म्लेच्छादि अर्थात् नीच लोगोंके घरपर भोजन कर लिया गया हो तो तीस उपवास, तिरेपन एकाशन, और दो सौ पात्रको दान करे; एक गाय, पांच कलश देवे, दो सौ बार जलस्नान करे, पुष्प और अक्षत देवे तथा दो बार तीर्थयात्रा करे ।। ८४-८५ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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