________________
त्रैवर्जिकाचार |
" ओं ह्रीं श्री वर्णे ” इत्यादि पढ़कर सिंहासनपर लिखे हुए श्रीकारपर प्रतिमा स्थापन करे ॥ ४८ ॥
ॐ हाँ अर्ह श्रीपरब्रह्मणे अर्घ्यं निर्वपामि स्वाहा || अर्घ्यदानमन्त्रः || ४९ ॥
"ओं ह्रीं अ" इत्यादि मंत्र पढ कर प्रतिमाको अर्ध्य देवे ॥ ४९ ॥
ॐ नमः परब्रह्मणे श्रीपादप्रक्षालनं करोमि स्वाहा || श्रीपादौ प्रक्षाल्य तज्जलैरात्मानं प्रसिश्चेत् ॥ पाद्यम् ॥ ५० ॥
१३५
“ ओं नमः परब्रह्मणे ” इत्यादि पढ कर श्री जिन चरणोंका प्रक्षालन कर उस जलसे - अपने को सीचे - जलकी कुछ बूदें अपने पर गेरे । इसे पाय कहते हैं ॥ ५० ॥
ॐ ह्रीँ ह्रीँ ँ हूँ ह्रीँ ँ ह: अ सि आउ सा एहि एहि संवौषट् ॥ आव्हानम् ॥ एवं अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॥ पुनः मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ॥५१॥
"ओं ह्राँ ह्रीं हूँ ह्रीँ" ह्रः असि आ उ सा एहि एहि संवौषट् ” यह पढ कर श्री जिन भगवानका आव्हान करे । इसी तरह ओं ह्रीं ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रा: अ आउ सा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं यह पढ कर प्रतिगजेन देवकी स्थापना करे । फिर " ओं ह्रीं ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः असि आ उ सा मम सन्नहितो भव भव वषट् ” यह पढकर सन्निधिकरण करे ॥ ५१ ॥
ॐ ह्रीँ ँ अ सि आ उ सा नमः || पंचगुरुमुद्राधारणम् ॥ ५२ ॥ " ओं ह्रीं अ सि " यह मंत्र पढकर पंच गुरुमुद्रा धारण करे ॥ ५२ ॥ ॐ वृषभाय दिव्यदेहाय सद्योजाताय महाप्राज्ञाय अनन्तचतुष्टयाय परमसुखप्रतिष्ठिताय निर्मलाय स्वयम्भुवे अजरामरपरमपदप्राप्ताय चतुर्मुखपरमेष्ठिने महते त्रैलोक्यनाथाय त्रैलोक्यप्रस्थापनाय अधीष्टदिव्यनागपूजिताय परमपदाय ममात्र सन्निहिताय स्वाहा ॥ अनेन पंचगुरुमुद्रानिर्वर्तनम् ।। ततोऽपि पाद्यम् ।। ५३ ।।
“ ओं वृषभाय " इत्यादि मंत्र के द्वारा पंच गुरुमुद्राकी रचना करे । इसके बादभी पूर्वोक्त प्रमाण पाय विधान करे ॥ ५३ ॥
ॐ हाँ झ्वाँक्ष्वाँ वं मं हं सं तं पं द्राँ द्राँ द्राँ द्राँ हंसः स्वाहा ॥ जिनस्यार्चमनम् ॥ ५४ ॥