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________________ २६४ सोमसेनभट्टारकविरचित वह बालक, एक धोती और एक दुपट्टा पहनकर आचमन, तर्पण और अर्घ्यदान यथाविधि करे । पश्चात अंजलि बनाकर उसमें गन्ध अक्षत और फल लेकर मुक्तिकी इच्छासे व्रतग्रहण करनेकी आचार्यसे प्रार्थना करे। उसकी प्रार्थना सुनकर आचार्य महाराज श्रावकाचारके अनुसार उसे व्रतग्रहण करावे। वह बालक बड़ी प्रीतिके साथ आचार्य महाराजके दिये हुए व्रतोंको और बीजमंत्रोंको ग्रहण करे ॥ २६-२८॥ मंत्र-ॐ हीं श्रीं क्लीं कुमारस्योपनयनं करोमि अयं विषोत्तमो भवतु अ सि आ उ सा स्वाहा । इति त्रिरुच्चार्य अघोरं पञ्चनमस्कारमुपदिशेत् । आचार्य तीन बार इस मंत्रको उच्चारकर उसे व्रत और पंचनमस्कारमंत्रका उपदेश करे। . शुद्धं विवाहपर्यन्तं ब्रम्हचर्य परिब्रजेत् । त्रैवाचारसूत्रं च छत्रदण्डसमन्वितम् ॥२९॥ विमादीनां तु पालाशखदिरो दुम्बराः क्रमात् । दण्डाः स्वोच्चास्तुरीयांशबद्धहारिद्रकर्पटाः ॥३०॥ अग्नरुत्तरतः स्थित्वा मांङ्मुखास्त्रजलाञ्जलीन् । पुष्पाक्षतान्वितान् कृत्वा वटुस्तिष्ठेन्निजासने ॥ ३१ ॥ होमपूजादिकं काये कृत्वा पूर्णाहुतिं गुरुः। अग्रे यद्यत् कर्तव्यं तत्तु तस्मै निवेदयेत् ॥ ३२ ॥ जबतक विवाह न हो तबतक निर्दोष ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करे । तीन वर्षों के आचरणके योग्य यज्ञोपवीत पहने तथा छत्र और दण्डा हाथमें रक्खे । ब्राह्मण तो पलाशकी लकड़ीका, क्षत्रिय खदिरकी लकड़ीका और वैश्य उदुंबरकी लकड़ीका दण्डा रक्खे । दण्ड अपनी उंचाईके बराबर ऊंचा होना चाहिए। जिस तरफसे दण्डको हाथमें पकड़ते हैं उस तरफ उसकी उंचाईके चतुर्थाश (चार हिस्सोंमेंसे एक हिस्से ) पर हल्दीसे रंगा हुआ कपड़ा चारों ओर लपेटा हुआ होना चाहिए । बाद वह बालक पूर्वकी तरफ मुख कर (अग्निसे उत्तरकी तरफ) खड़ा होवे और पुष्प-अक्षतयुक्त जलकी तीन अंजलि देकर अपने आसनपर बैठे । बाद गुरु होम पूजा आदि कर पूर्णाहुति दे। इसके बाद जो विधि करना हो वह सब गुरु उस बालकको पहले कहता जाय कि अब यह विधि होगी, अब यह होगी, इत्यादि ॥ २९-३२॥ निर्गत्य सदनाच्छिष्यस्त्वङ्गणे ह्याचमं परम् । कृत्वा सूर्य समालोक्य एकम समुत्तरेत् ॥ ३३ ॥ शमीत्रीह्यक्षतैर्लाजैः क्षीराज्यचरुभिस्तथा । संसिञ्च्य जुहुयादग्नौ शान्त्यर्थ तिस्र आहुतीः॥ ३४ ॥ संवृतौष्ठद्वयं वक्त्रं धौतं तापितपाणिना । त्रिः समृज्याग्न्युपस्थानं कृत्वाऽग्निं विसृजेत्पुनः ॥ ३५ ॥ आविद्याभ्यसनं चान्ते भिक्षावृत्तिप्रयोजनम् । गुरोरादेशमादाय बहिर्गच्छेत्स पात्रयुक् ॥ ३६ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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