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________________ aurwwwwwwwwwwww www .maavw. त्रैवर्णिकाचार। वृक्षमूले स्वपेनैव खट्वाशय्यासने दिने । मन्त्रपञ्चनमस्कारं जिनस्मृति स्मरेद्हृदि ॥ २० ॥ अअलावश्नीयात्पर्णपात्रे ताने च पैत्तले । भुक्तं चेत्कांस्यजे पात्रे तत्तु शुद्ध्यति वह्निना ॥ २१ ॥. नियत समयमें ऋतुमती हुई स्त्री डाभके आसनपर सोवे, निर्जन एकान्त स्थानमें रहे, किसी स्त्री-पुरुष आदिको न छूवे, मौन-युक्त रहे, देव-धर्मसंबंधी चर्चा न करे; मालती, माधवी, कुंद आदिकी बेल हायमें रक्खे; शीलकी पूरी पूरी रक्षा करे, तीन दिनतक एक बार भोजन करे, गोरसदूध, दही, घी न खावे; आंखोंमें अंजन ( कज्जल)न आंजे, शरीरमें तैलकी मालिश और गंधलेपन न करे, पुष्पमाला न पहने, शृंगार न करे, देवको गुरुको और राजाको न देखे, दर्पणमें अपमा रूप न निरखे, कुल-देवताका दर्शन न करे; उनसे, भाषण भी न करे, वृक्षक नाचे म सोवे, पलंगपर म सोवे, दिनमें भी न सोवे, पंचनमस्कारमंत्रका हृदयमें स्मरण करती रहे ( मुखसे उच्चारण न करे), हथेलीमें या पत्तलमें या तांबे-पीतलकी थालीमें भोजन करे; कांसेकी थालीमें भोजन न करे, यदि कर ले तो वह थाली अमिपर तपानेसे शुद्ध होती है ॥ १६-२१ ॥ । रजस्वलाकी शुद्धि। . चतुर्थे दिवसे स्नायात्मातोसर्गतः पुरा।. .. पूर्वाहे घटिकाषद्कं गोसर्ग इति भाषितः॥ २२ ॥ .. चौथे दिन प्रातःकाल ही गोसर्गसे पहले स्नान करे । प्रातःकालके छह घड़ी कालको गोसर्मकाल कहते हैं अर्थात् सूर्योदयसे तीन घड़ी पहलेके और तीन घड़ी पीछेके कालको गोसर्ग-काल कहते हैं। यह समय गायोंको चरनेके लिए जंगलमें छोड़नेका है अतः इसे गोसर्ग-काल कहते शुद्धा भर्तुश्चतुर्थेऽहि भोजने रन्धनेऽपि वा। देवपूजागुरूपास्तिहोमसेवासु पञ्चमे ॥ २३ ॥ वह रजस्वला स्त्री चौथे दिन स्नान करलेनेपर भोजन-पान बनाने योग्य शुद्ध हो जाती है, पर देवपूजा, गुरुकी उपासना और होम-सेवाके योग्य पांचवें दिन होती है ॥ २३ ॥ उदक्ये यदि सलापं कुर्वाते उभयोस्तयोः। ... ' अतिमात्रमधं तस्मादय सम्भाषणादिकम् ॥ २४॥.. दो रजस्वला स्त्रियां यदि परस्परमें बातचीत करें तो भारी पाप लगता है। इसलिए रजस्वलाएं परस्पर बातचीत न करें ॥ २४ ॥ संलापे तु तयोः शुद्धिं कुर्यादेकोपवासतः। तद्वयात्सहसंवासे तत्रयात्पंक्तिभोजने ॥ २५॥ अगर दो रजस्वला स्त्रियां मिलकर परस्पर बातचीत करें तो उसका प्रायश्चित्त एक एक उपवास है-एक एक उपवास करनेसे वे उस पापसे उन्मुक्त होती हैं। यदि दोनों एक साथ में
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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