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________________ सोमसेनभट्टारकाविरचित पाप होता है इत्यादि धर्मके रहस्यको विस्तार पूर्वक समझावे । तथा मुनि पंडित आदिकी शास्त्र सुनने-सुनानेकी इच्छा उत्पन्न करावे-अथवा सेवा शुश्रूषा करे-करावे ॥९५॥९६॥९७।९८॥९९॥१०॥ नमस्कारं पुनः कुर्याजिनानां जैनधर्मिणाम् । गुर्वादिकं च सम्पृछ्य व्रजेनिजगृहं गृही ॥ १०१ ॥ फिर जिनदेवको और जैन धर्मियोंको नमस्कार करे और गुरु आदिको पूछ कर वह गिरिस्त अपने घरको रवाना होवे ॥ १०१ ॥ सदने पुनरागत्य कृत्वा स्नानं च पूर्ववत् । जपहोमजिनार्चाश्च कुर्यादाचमनादिकम् ॥ १०२॥ प्राणायामं परीषेकं शिरसोऽर्घप्रकल्पनम् । उष्णोदकेन पूजादिकार्यं कुर्यान्न च कचित् ॥ १०३ ॥ घरपर आकर स्नान कर जप, होम, जिन भगवानकी पूजा, आचमन, प्राणायाम, शिरपर जल सिंचन, अर्घ्य प्रदान आदि सम्पूर्ण कार्य पहलेकी तरह करे । तथा कहीं परभी गर्म जलसे पूजा आदि कार्य न करे ॥ १०२ ॥ १०३ ॥ पात्रदान । ततो भोजनकाले तु पात्रदानं प्रकल्पयेत् । भोगभूमिकरं स्वर्गप्राप्तेरुत्तमकारणम् ॥ १०४॥ इसके बाद भोजन करनेके समय, भोग भूमिको ले जाने और स्वर्ग प्राप्त करानेका उत्तम कारण ऐसा जो पात्रदान है उसे करे ॥ १०४ ॥ पात्रोंके भेद। पात्रं चतुर्विधं ज्ञेयममुत्रात्र सुखाप्तिदम् । धर्मभोगयश सेवापात्रभेदात् परं मतम् ॥ १०५ ॥ इस भवमें और परभवमें सुख देनेवाले धर्म पात्र, भोगपात्र, यशपात्र और सेवापात्रके भेदसे चार तरहके पात्र माने गये हैं । भावार्थ-पात्रके चार भेद हैं ॥ १०५॥ धर्म पात्रके भेद। धर्मपात्रं त्रिभेदं स्याज्जघन्यं मध्यमोत्तमम् । तेभ्यो दानं सदा देयं परलोकसुखप्रदम् ॥ १०६ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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