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________________ २९२ सोमसेनभट्टारकविरचितजो आठ मूलगूणोंका धारी है, सात व्यसनोंका त्यागी है और सद्गुरुके वचोंमें आसक्त है, वह सम्यकदृष्टि कहा आठ मूलगुणों के नाम । तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्यु पंचक्षीरफलानि च ॥ ६९ ॥ ___ गृहस्थोंको सबसे पहले जिन-आशाका श्रद्धान करते हुए हिंसाको त्यागनेके लिए मद्य, मांस, मधु और पांच क्षीरफलोंका त्याग करना चाहिए । इनका स्वरूप पहले लिख आये हैं ।। ६९ ॥ अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा। __ फलस्थाने स्मरेत् द्यूतं मधुस्थान इहैव च ॥ ७० ॥ भगवत्सोमदेव सूरि, अमृतचंद्र सूरि आदि आचार्य इन ऊपर कहे आठोंको मूलगण कहते हैं। भगवान समन्तभद्राचार्य पांच क्षीरफलों के स्थानमें स्थूल-वधादिके त्यागको अर्थात् पांच अणुव्रतोंका धारण और तीन मकारके त्यागको अष्ट मूलगुण कहते हैं। और भगवजिनसेनाचार्य, समन्तभद्रस्वामीके बताये हुए अष्ट मूलगुणोंमें मधुके स्थानमें जूए के त्यागको अर्थात् पांच अणुव्रतोंके धारण, मद्यके त्याग, मांसके त्याग और जुआ खेलनेके त्यागको अष्ट मूलगुण कहते हैं। तथा-||७०|| मद्यपलमधुनिशाशनपश्चफलीविरतिपञ्चकाप्सनुती। जीवदया जलगालनमिति च कचिदष्टमूलगुणाः ॥ ७१ ॥ ___ किन्हीं किन्हीं ग्रन्थोंमें मद्यविरति', मांसविरति', मधुविरति', रात्रिभोजन विरति', पंच-क्षीरफलोंका त्यागे, पांच आप्तोंर्का नुति, जीवदाँ, और जल छानकर पीना, ये आठ मूलगुण बताये हैं ॥ ७१ ॥ __ आचार्योंके बताये हुए इन • मूलगुणोंमें कोई विरोध नहीं है । सबका उद्देश वही हिंसाके त्यागका है । जबकि गृहस्थोंका चारित्र देश-चारित्र है, और देशके अनेक भाग होते हैं, तब मूलगुणोंमें अनेक भेदोंका जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट-रूप हो जाना आश्चर्यकारक नहीं है । हां, मुनियोंका चारित्र सकल-चारित्र है। उनके बाह्य मूल चारित्रमें कुछ भेद नहीं होता। गिरस्तोंके चारित्रमें अनेक भेद होते हैं। अन्यथा वह देश-चारित्र ही नहीं हो सकता । सबमें उत्तरोत्तर हिंसात्यागकी प्रकर्षता है । वह प्रकर्षता मुनियोंके चारित्रमें अन्त्य दर्जेको पहुंच जाती है । इसलिये आचार्य बचनोंमें कुछ भी विरोध नहीं समझना चाहिए। गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षावतात्मकं चरणम् । पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातम् ॥ ७२ ॥ ... गिरस्तोंका चारित्र तीन प्रकारका है-अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत । ये क्रमसे पांच, तीन और चार भेदरूप हैं !! ७२ ॥ पांच अणुव्रतोंका स्वरूप । प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममृच्छाभ्यः। स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति ॥ ७३ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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