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પ
सोमसेनभट्टारकविरचित
येषां न सन्ति मूढानामन्तराया दुरात्मनाम् । क धर्मः क दया तेषां क पावित्र्यं क शुद्धता ॥
६५ ॥
जो महामूढ़ दुरात्मा मुनि इन अन्तरायोंको नहीं पालते उनके धर्म कहां ? दया कहां ? आभ्यन्तर पवित्रता कहां और बाह्य शुद्धि कहां ? भावार्थ-जो अन्तरायोंको नहीं पालते उनके न धर्म है, न दया है और न बाह्य और आभ्यन्तर पवित्रता है । ६५ ।। शौचलो भवेद्धर्मः सर्वजीवदया प्रदः ।
पवित्रत्वदाभ्यां तु मोक्षमार्गः प्रवर्तते ॥ ६६ ॥
जिसका मूल कारण शौच है वही धर्म सम्पूर्ण जीवोंपर दयाभाव करानेवाला है; क्योंकि पवित्रता और दयासे ही मोक्षमार्ग प्रवर्तता है ॥ ६६ ॥
न योग्य भोजन |
यथालब्धं तु मध्याह्ने प्रास्रुकं निर्मलं परम् ।
भोक्तव्यं भोजनं देहधारणाय न भुक्तये ।। ६७ ॥
मध्याह के समय, प्रासुक और शुद्ध जैसा मिले वैसा ( चिकना या चूपड़ा, गर्म या ठंडा आदि) भोजन मुनियों को अपनी शरीर-स्थितिके लिए करना चाहिए, न कि भोजनके लिए (स्वाद आदिके निमित्त ) ॥ ६७ ॥
मनोवचनकायश्च कृतकारितसम्मतैः ।
नवधा दोषसंयुक्तं भोक्तुं योग्यं न सन्मुनेः ॥ ६८ ॥
मन, वचन और काय, प्रत्येकके कृत कारित और अनुमोदना - इस तरह नव प्रकार के दोषों से युक्त भोजन मुनिके ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ ६८ ॥
मध्याह्नसमये योगे कृत्वा सामयिकं मुदा ।
पूर्वस्य तु जिनं नत्वा ह्याहारार्थं ब्रच्छनैः ॥ ६९ ॥ पिच्छं कमण्डलुं वामहस्ते स्कन्धे तु दक्षिणम् ।
हस्तं निधाय संदृष्टया स व्रजेच्छ्रावकालयम् ॥ ७० ॥ स्वा गृहाङ्गणे तस्य तिष्ठेच्च मुनिरुत्तमः ।
नमस्कार पदान् पंच नववारं जपेच्छुचिः ॥ ७१ ॥
माध्यान्ह समयसम्बन्धी सामायिक क्रियाको करके पूर्व दिशाकी ओर जिनदेव या जिन चैत्यालयको नमस्कार करके आहार के लिए धीरे धीरे गमन करे । पिच्छी और कमंडलुको बायें हाथमें ले ले और दाहिने हाथको कंधेपर रख ले। फिर धीरे धीरे ईर्यापथ-शुद्धिपूर्वक श्रावक के घरपर जावे । वहां श्रावकके पड़ गाह लेनेके बाद उसके घर के आँगनमें जाकर खड़ा होवे और नौ वार पंचनमस्कारका जाप करे ।। ६९-७१॥
भिक्षा देनेकी विधि | तं दृष्ट्वा शीघ्रतो भक्त्या प्रतिगृह्णाति भाक्तिकः । मासुकेन जलेनाङ्घ्री प्रक्षाल्य परिपूजयेत् ॥ ७२ ॥