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सोमसेनभट्टारकविरचित'तेरहवां अध्याय ।
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वन्दे तं शान्तिनाथं शिवसुखविधिदं सेवितं भव्यलोकै- .. रादौ चक्रेण राज्यं सकलभरतजं साधितं येन पुण्यात् । 'पश्चादीक्षा समादाय तु कलिलमलं छिन्नकं ध्यानचक्रः
शुद्धज्ञानेन भव्याः सुसमवसरणे बोधिता मोक्षहेतोः ॥१॥ .. मैं अन्धका भव्यजीवों कर सेवनीय मोक्ष-सुखको प्रदान करनेवाले उन शान्तिनाथ तीर्थकरको नमस्कार करता हूं, जिन्होंने पूर्व भवोंमें उपार्जित पुण्यके उदयसे सबसे प्रथम चक्र-रत्नके
य साधन किया । पाश्चात् दक्षिा धारण कर ध्यानचक्र के द्वारा घातियाकर्मरूप पाप-मलको छिन्नभिन्न किया । अनन्तर शुद्ध केवलज्ञान प्राप्तकर उसके द्वारा समवशरणमें मोक्ष-मुखके अर्थ भव्य जीवोंको संबोधित किया। :: : ...............
कर्मकलंकषिमुक्तं मुक्तिश्रीवल्लभं गुणैर्युक्तम् । " . . ..
सिद्धं नत्वा वक्ष्ये द्विधा स्फुटं मूतकाध्यायम् ॥२॥ कर्म-कलंकसे रहित, मुक्ति-लक्ष्मीके बल्लभ, सम्यग्दर्शनादि गुगोंसे युक्त सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर मृतक-सूतक और जनन सूतकको प्रतिपादन करनेवाले तेरहवें अध्यायका प्रारंभ करता
क्षत्रियवैश्यविप्राणां मूतकाचरणं विना।. .
देवपूजादिकं कार्य न स्यान्मोक्षपदायकम् ॥३॥. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य दोनों तरहके सूतकका पालन करें। क्योंकि सूतक दूर किये बिना उनके किये हुए देवपूजादि कार्य मोक्ष-प्रदायक नहीं होते ॥ ३ ॥
सुतकके भेद। मृतकं स्याच्चतुर्भेदमातवं सौतिकं तथा ।
..मात सत्संगजं चेति तत्रातवं निगयते ॥४॥ र सूतकके चार भेदं हैं-एक आर्तव-सूतक, दूसरा प्रसूति-सूतक, तीसरा मरण-स्तक और चौथा इन तीनोंके स्पर्शजन्य सूतक । उनमेंसे प्रथम आर्तव सूतकको कहते हैं ।। ४ ॥
- आर्तव-सूतकके भेद । रजः पुष्पं ऋतुश्चेति नामान्यस्यैव लोकतः।
द्विविधं तत्तु नारीणां प्रकृतं विकृतं भवेत् ॥ ५ ॥ . स्त्रियों के रजोधर्मको आर्तव-सूतक कहते हैं। उसके रज, पुष्प और ऋतु-ये नाम लोकमें प्रसिद्ध हैं। यह आर्तव-सतक दो तरहका है-एक प्रकृत और दसरा विकृत ॥५॥