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· सोमसेनभट्टारकविरचित
दूसरा मत । दिनाच्चेत् षोडशादर्वाङ्नारी या चातियौवना । पुना रजस्वलाऽपि स्याच्छुद्धिः स्नानेन केचन ॥
१२ ॥
जो कोई अत्यन्त यौवन स्त्री सोलह दिनोंसे पहले पुनः रजखला हो जाती है उसकी स्नान मात्र से शुद्धि होती है । भावार्थ- रजस्वला होकर सोलह दिन पहले यदि फिर रजस्वला हो जाय तो पुनः 'तीन दिन तक आशौच धारण करनेकी आवश्यता नहीं वह सिर्फ स्नान करलेनेसे ही शुद्ध मानी गई है, ऐसा दूसरा मत है ॥ १२ ॥
उसे
रजस्वलायाः पुनरेव चेद्रजः प्राग्दृश्यतेऽष्टादशवासराच्छुचिः ।
अष्टादशाहे यदि चेदिनद्वयादेकोनविंशे त्रिदिनात्ततः परम् ॥ १३ ॥
यदि किसी रजस्वला स्त्रीके अठारह दिनसे पहले पुनः रजोदर्शन हो जाय तो वह शुद्ध है। परन्तु यदि वह अठारहवें दिन रजस्वला हो तो वह दो दिन से शुद्ध होती है-दो दिन बीत जानेपर स्नानकर पवित्र होती है | और यदि उन्नीसवें आदि दिनोंमें रजस्वला हो तो तीन दिन से शुद्ध होती है ॥ १३ ॥
रंजोयुताष्टादशवासरे पुनः प्रायेण या यौवनशालिनी वधूः ।
त्र्यहेण सा शुद्ध्यति दैवपित्र्ययो रजोनियुक्ताशुचिरार्तवे सति ॥ १४ ॥
जो भर-यौवन स्त्री अठारहवें दिन पुनः रजस्वला होती है वह यद्यपि दो दिन आशौच धारण कर शुद्ध हो जाती हैं, तो भी दैवकर्म और पित्र्यकर्मके योग्य वह तीसरे दिन होती है । क्योंकि रजस्राव होते हुए वह रजोयुक्त है; अतः अशुचि-अशुद्ध है ॥ १४ ॥
रजस्वला यदि स्नाता पुनरेव रजस्वला ।
अष्टादशदिनादवगशुचित्वं न निगद्यते ॥ १५ ॥
यदि कोई स्त्री चतुर्थ स्नानकर अठारह दिनसे पहले पुनः रजस्वला हो जाय तो वह अपवित्र नहीं कही जाती । यह तीसरा ही मत है ॥ १५ ॥
रजस्वलाका आचरण ।
काले ऋतुमती नारी कुशासने स्वपेत्सती । एकांतस्थानके स्वस्था जनस्पर्शनवर्जिता ॥ १६ ॥ मयुक्ताऽथवा देवधर्मवार्ताविवर्जिता । • मालतीमाधवीवल्लीकुन्दादिलतिकाकरा ।। १७ ।। रक्षेच्छीलं दिनत्रयं चैकभक्तं विगोरसम् । अञ्जनाभ्यङ्गस्त्रग्गन्धलेपनमण्डनो ज्झिता ।। १८ ।। देवं गुरुं नृपं स्वस्य रूपं च दर्पणेऽपि वा । न पश्येत्कुलदेवं च नैव भाषेत तैः समम् ॥ १९ ॥