________________
त्रैवर्णिकाचार।
wriwwwwwwwmarawaiamarpawora
स्त्रीसूतौ तु तथैव स्यादनिरीक्षणलक्षणम् ।
पश्चादनधिकाराचं स्यात्रिंशदिवसं भवेत् ॥६६॥ पुत्र-जन्ममें दश दिन तकका माताको अनिरीक्षण सूतक है अर्थात् दश दिनतक प्रतिका कोई मुखावलोकन न करें। तथा वीस दिनतकका उसे अनधिकार सूतक है अर्थात् प्रसूति दिनसे वीस दिनतक वह घरके कोई कार्य न करे । इसी तरह पुत्री-जन्ममें दश दिनका अनिरीक्षण सूतक और तीस दिनतकका अनधिकार सूतक है ॥ ६५-६६ ॥ .. तया सहैकवासादिसंसर्गे पितुरप्यघम् ।
अनिरीक्षणमसंसर्गे त्वस्पृश्याचं मनाग्भवेत् ॥ ६७ ।। ____ यदि बालकका पिता प्रसूतिके साथ एक स्थानमें रहना.आदि संसर्ग करे तो उसको भौ अनिरीक्षण सूतक है अर्थात् दश दिन तक उसका भी कोई मुख न देखें । यदि वह प्रसूतिके साथ तो रहे पर उसका स्पर्श वगैरह न करे तो उसे अस्पृश्य स्तक है अर्थात् दश दिन तक उसका कोई.स्पर्शन करे ॥ ६७ ॥
मृतकं मृतकेनैव सूतकं सूतकेन च ।
शावेन शुद्धयते सूतिः शावं सूत्या न शुद्धयति ॥ ६८ ॥ मृतक सूतककी मृतक सूतकसे, जातक सूत्रककी जातक सूतकसे और जातक सूतककी मृतक सूतकसे शुद्धि हो जाती है; परंतु मृतक सुतककी जातक सूतकसे शुद्धि नहीं होती। भावार्थ-एक मृतक सूतकके बाद दूसरा मृतक सतक और एक जातक सूतकके बाद दूसरा, जातक सूतक आ उपस्थित हो तो पहले सतककी समाप्ति के दिन ही दूसरा सूतक पूर्ण हो जाता है तथा मतक सतकके बाद प्रसूति सूतक हुआ हो तो मृतक सतककी पूर्णताके दिन जातक सूतक भी पूर्ण हो जाता है, परन्तु प्रसूति सूतकके बाद मृतक सूतक हुआ हो तो प्रसूति सूतककी पूर्णताके दिन मृतक सूतक पूर्ण नहीं होता ॥ ६८॥
अथ देशांतरलक्षणं-देशान्तरका लक्षण । -:, महानद्यन्तरे यत्र गिरिर्वा व्यवधायकः ।
वाचो यत्र विभिद्यन्ते तद्देशान्तरमुच्यते ॥ ६९ ॥ त्रिंशद्योजनदूरं वा प्रत्येकं देशभेदतः। ....
प्रोक्तं मुनिभिराशौचं सपिण्डानामिदं भवेत् ॥ ७० ॥ जहांफर बोली बदलते हुए महानदी बीचमें पड़ती हो या बोली बदलते हुए ही पर्वत बीच में पड़ता हो वह देशान्तर है अथवा तीस योजनसे ऊपरके देशको भी देशान्तर कहते हैं। अगर कोई सपिंड (चौथी पीढीतकके) बांधव देशान्तरमें निवास करते हैं तो उनको यह सतक देश-भेदकी अपेक्षासे प्राप्त होता है। भावार्थ-चौथी पीढ़ीतकके सपिंड देशान्तरों में हो तो उन्हीं की देशभेदसे सूतक लगता है, पुत्रको नहीं ॥ ६९-७० ॥
पितरौं चेन्मृतौ स्यातां दूरस्थोऽपि हि पुत्रकः। श्रुत्वा तदिनमारभ्य पुत्राणां दशरात्रकम् ।।७१ ॥
7