________________
. ३६४
सोमसेनभट्टारकविरचित
वातादिसे उपहत हो, नन अर्थात् शरीरपर दुपट्टा आदि ओढ़े हुए न हो, बेहोश होकर उठा हो, वमन करके आया हो, जिसके खून चुचाता हो, जो वेश्या-दासी हो, आर्थिका हो, पंचश्रमणिका हो, तैल मालिश करनेवाली हो, अत्यंत बालक हो, अत्यंत वृद्ध हो, भोजन करती हुई हो, अंधी हो, भीत आदिके ओटमें खड़ी हो, बिलकुल पासमें बैठी हो, अपनेसे ऊंचे स्थान में बैठी हो, जो अभि जला रही हो, अनि फूंक रही हो, भस्मसे अनि बुझा रही हो, लीप रही हो, स्नान कर रही हो, स्तनपान करते बालकको छोड़कर आई हो, तथा जो जातिच्युत हो । तात्पर्य- ऐसी स्त्री या पुरुष के हाथका आहार लेना दायक - दोष है ॥ ११५ ॥
लिप्त दोष । अमासुकेन लिप्तेन हस्तेनैव विशेषतः ।। ११६ ॥ भाजनेन ददात्यन्नं लिप्तदोषः स कीर्तितः ।
अप्रासुक जल आदि से गीले हाथोंसे आहार देना तथा अप्रासुक चीजोंसे लिप्त वर्तन में रखकर आहार देना लिप्त दोष कहा गया है ।। ११६ ॥
मिश्र-दोष ।
आमपात्रादिके पात्रे सचित्तेनाई मिश्रितम् ॥ ११७ ॥
ददात्याहारकं भक्त्या मिश्रदोषः प्रकीर्तितः ।
सचित्त मिट्टी के वर्तन में रखकर तथा सचित्त जलादिकसे मिश्रित आहार देना मिश्र-दोष है । भावार्थ-सचित्त मिट्टी, सचित्त जव, गेहूं आदि बीज, सचित्त पत्ते, पुष्प, फल आदि तथा जिंदे या मृत द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंसे मिला हुआ आहार मिश्र आहार कहलाता है ॥ ११७ ॥ अंगार- दोष |
गृध्या यो मूच्छितं ह्यन्नं भुङ्क्ते चाङ्गारदोषकः ।। ११८ ॥ सुध-बुध न रखकर अत्यंत लंपटता के साथ आहार करना अंगार-दोष है ॥ ११८ ॥ धूम - दोष और संयोजन - दोष |
भोज्याला दातारं निन्दन्नत्ति स धूमकः ।
शीतमुष्णेन संयुक्तं दोषः संयोजनाः स्मृतः ॥ ११९ ॥
मनोभिलषित आहार न मिलनेपर दाताकी निंदा करते हुए आहार ग्रहण करना धूम-दोष है । तथा गर्म आहारसे ठंडा आहार और ठंडेसे गर्म आहार मिलाना संयोजना-दोष है ॥ ११९ ॥ प्रमाण-दोष 1 प्रमाणतोऽन्नमत्यात्त दोषश्चैषोऽप्रमाणकः ।
इत्येवं कथिता दोषाः षट्चत्वारिंशदुक्तितः ॥ १२० ॥
प्रमाणसे अधिक आहार करना अप्रमाण-दोष है । भावार्थ - उदरके चार भाग करना, दो भागोंको आहारसे भरना, एकको जलसे भरना और चौथे भागको खाली रखना प्रमाणभूत आहार है । इस प्रमाणसे अधिक आहार ग्रहण करना अप्रमाण-दोष है । इस तरह यहांतक छ्यालीस दोष क कथन किया ॥ १२० ॥