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त्रैवर्णिकाचार ।
• आहार देते हुएको बीचमें ही कोई रोक दे तो वह आहार मुनियोंको नहीं देना चाहिए। निषेध करनेपर भी य द कोई दे तो वह आहार निषिद्धनामक महादोषसे संयुक्त माना गया है। भावार्थ-निषिद्ध आहारके व्यक्तेश्वर, अव्यक्तेश्वर, व्यक्ताव्यक्तेश्वर, व्यक्तानीश्वर, अव्यक्तानीश्वर, व्यक्ताव्यक्तानीश्वर-ऐसे छह भेद हैं। आहार देते हुएकोइनमेंसे कोई रोक दे तो वह आहारः निषिद्ध दोष कर संयुक्त है, ऐसा आहार मुनीश्वरों को नहीं लेना चाहिए; क्योंकि इसमें विरोधादिक दोष देखे जाते हैं ॥ ९१-९२ ॥
अभिहित दोष। . . . यस्मात्कस्माद्विना पंक्त्या गृहादष्टमतः परम् ।
आनीतं गृह्यते चानं तदेवाभिहितं मतम् ॥ ९३ ॥ पंक्ति स्वरूप तीन अथवा सात घरोंको छोड़कर जिस किसी घरसे आया हुआ भोजन अथवा पंक्तिरूप घरों में भी अष्टमादि घरोंसे आया हुआ भोजन अभिहित दोषयुक्त माना गया है। भावार्थजिस समय आहार ले रहे हों उस समय कोई दूसरा पुरुष भी अपने घरसे आहार लाकर भक्तिभावसे दे ती जिस घरमें आहार ले रहे हों उस घरसे पंक्तिरूप तीन अथवा सात घर तकका आया हुआ आहार मुनि ले सकते हैं इसमें कोई दोष नहीं है; परंतु पंक्तिरूप तीन या सात घरोंको छोड़कर अष्टमादि घरसे आया हुआ या विना ही पंक्तिके किसी भी घरसे आया हुआ अन्न अभिहित दोषसंयुक्त है। ऐसा अन्न मुनियोंको ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ९३ ॥
- उद्भिन्न दोष। घृतादिभोजनं सारं मुद्रितं कर्दमादिना ।
उद्भिद्य दीयते दोष उद्भिन्नः परिपठ्यते ॥ ९४ ॥ मिटी. लाख आदिसे वर्तनका मुख मूंद दिया गया हो ऐसे वर्तनमेंसे उसपरकी मिट्टी लाख आदिको हटाकर घृत, गुड़, शक्कर आदि सार वस्तु निकाल कर देना उद्भिन्न दोष है ॥ ९४॥
. आच्छाद्य दोष । संयतान् परमान् दृष्ट्वा राजचोरादिभीतितः।
दानं ददाति स प्रोक्तो दोष आच्छाधनामर्कः॥ ९५ ॥ राजा, चौर आदिके भयसे संयतोंको आहार देना आच्छाद्य नामका दोष है। भावार्थ--जब संयतोंको भिक्षाजन्यश्रम देखकर राजा या राजासदृश कोई तेजस्वी अथवा चौरादि गृहस्थोंको या तो तुम आये हुए मुनिगणको आहार दो नहीं तो हम तुम्हारा धन-माल छीन लेंगे या लूट लेंगे अथवा शहरसे बाहर निकाल देंगे, इस तरह डराकर आहार दिलावें तब आहार देना सो यह आच्छे. द्यनामक दोष है ।। ९५ ॥
मालारोहण दोष। निःश्रेण्यादिकमारुह्य द्वितीयगृहभूमितः ।
आदाय दीयते ह्यनं तन्मालारोहणं मतम् ॥ ९६ ॥ १ श्लोकका पाठान्तर ऐसा भी है:. नृपादीनां भयं श्रुत्वा मुनीनां हृतमौनतः । गुप्तवृत्या तु यह दोष आच्छाद्यनामकः ।