Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Somsen Bhattarak, Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 394
________________ afrat ३५३ नामका अन्तराय है । यदि किसीके द्वारा कोई तरहका उपसर्ग हो जाय तो उपसर्ग नामका अन्तराय है । यदि मुनिके पैरों के बीच में होकर कोई पंचेन्द्रिय जीव निकल जाय तो पंचेन्द्रियगमन का अन्तराय है । यदि परोसनेवालेके हाथसे छूटकर वर्तन नीचे गिर पड़े तो भाजमसम्पात नामका अन्तराय है । तथा ।। ५९ ।। उच्चारं परसवणं अभोजगिहपवेसणं तहा पडणं । उववेसणं सदसो भूमीसंफास णिवणं ॥ ६० ॥ यदि अपनेको टट्टीकी या मूत्रकी बाधा हो जाय तो उच्चार और प्रस्रवण नामके अन्तराय हैं । यदि आहार के लिए पर्यटन करते समय मुनिका चंडाल आदिके घर में प्रवेश हो जाय तो अभोजनगृहप्रवेश नामका अन्तराय है । यदि मूर्च्छा आदिके कारण मुनि गिर पड़े तो पतन नामका अन्तराय है । यदि भोजन करते समय बैठ जाय तो उपवेशन नामका अन्तराय है । यदि चर्या के समय कुता आदि जानवर अपनेको काट खाय तो सदंश नामका अन्तराय है । भोजनके समय सिद्धभक्ति कर चुकने पर हाथसे भूमिका स्पर्श हो जाय तो भूमिस्पर्श नामका अन्तराय है । खकार आदि थूकना निष्ठीवन नामका अन्तराय है । तथा ॥ ६० ॥ उदरकिमि णिग्गमणं अदत्तगहणं पहार गामदाहो य । पादेण किंचिगहणं करेण किंचि वा भूमीदो ॥ ६१ ॥ उदरसे यदि कृमि निकल आवे तो कुमिनिर्गमन नामका अन्तराय है । यदि विना दिया हुआ ग्रहण करले तो अदत्तग्रहण नामका अन्तराय है । अपने या परके ऊपर तलवार आदिका प्रहार हो तो प्रहार नामका अन्तराय है । यदि ग्राम जल रहा हो तो ग्रामदाह नामका अन्तराय है । पैरसे किसी चीजका उठामा पाद नामका अन्तराय है और हाथसे भूमिपरसे कुछ उठामा इस्तनामका अन्तराय है । ये ऊपर कहे हुए भोजन के बत्तीस अन्तराय हैं ।। ६१ ॥ चौदह मल । णहरोमजंतु अत्थिकणकुंडयपूयरुहिर मंसचम्माणि । बीयफलकंदमूला छिण्णमला चोइसा होंति ।। ६२ ॥ नख, रोम, जन्तु ( प्राणिरहित शरीर ), हड्डी, तुष, कुण्ड ( चावल ) आदिका भीतरी सूक्ष्म अवयव, पीप, चर्म, रुधिर, मांस, बीज, फल, कंद और मूल-ये आठ प्रकारकी पिंडशुद्धिसे जुदें चौदह मल हैं ॥ ६२॥ इत्येवं मिलित्वा सर्वे षट्चत्वारिंशदात्मकाः । अन्तराया मुने रम्याः सर्वजीवदयावहाः || ६३ || इस तरह बत्तीस और चौदह मिलाकर कुल छयालीस मुनिके भोजनके अन्तराय हैं, जो मुनिको सम्पूर्ण जीवों पर दयाभाव करानेवाले हैं ।। ६३ ।। अन्तराया मता येषां न सन्ति तपस्विनः । ज्ञेया भ्रष्टा दयातीताः श्वभ्रावासनिवासिनः ॥ ६४ ॥ जो मुनि इन अन्तरायोंको नहीं पालते वे भ्रष्ट मुनि हैं, करुणाभावसे रहित हैं और नरकगामी हैं ॥ ६४ ॥ ४५

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