________________
३४२
सोमसेनभट्टारकविरचित
व्याधिता स्त्रीमजा वन्ध्या उन्मत्ता विगतातेवा। ' अदुष्टा लभते स्यागं तीर्थतो न तु धर्मतः ॥ १९८ ॥ व्याधिता-जो वर्षोंसे रोग-प्रसित हो, स्त्रीप्रजा-जिसके केवल कन्याएं पैदा होती हों, वन्ध्याजिसके संतति होती ही न हो, उन्मत्ता-जो नसा करनेवाली हो, विगतातबा-जोरजस्वला न होती हो और अदुष्टा-उत्तम स्वभाववाली हो परंतु जिसके संतति न होती हो, ऐसी स्त्रियां कामभोगके लिए त्याज्य हैं, धर्मकृत्योंके लिए नहीं । भावार्थ-ऐसी स्त्रियों के साथ संयोगादि क्रिया न करें धर्मकृत्य करनेमें कोई हानि नहीं ॥ १९८ ॥
सरूपां सुमनां चैव सुभगामात्मनः प्रियाम् ।
'धर्मानुचारिणीं भायां न त्यजेद्गृहसवती ॥ १९९ ॥ जो रूपवती हो, जिसके संतति होती हो, जो भाग्यशालिनी हो, अपनेको प्यारी हो और जो धर्मकृत्योंमें सहचारिणी हो ऐसी उत्तम स्त्रीके होते हुए दूसरा विवाह न करे ॥ १९९ ॥
प्रमदामृतवत्सरादितः पुनरुद्वाहविषिर्यदा भवेत् ।
विषमे परिवत्सरे शुभः समवर्षे तु मृतिप्रदो भवेत् ॥ २० ॥ स्त्रीके मर जानेपर दूसरा विवाह यदि करना हो तो जिस वर्षमें वह मरी है उस वर्षसे लेकर किसी भी विषम वर्षमें विवाह करना शुभ माना गया है । तथा सम वर्षमें मृत्युप्रद माना गया है।
मतान्तरं-दसरा मत । पत्नीवियोगे प्रथमे च वर्षे नो चेद्विवर्षे पुनरुद्हेत्सः ।
अयुग्ममासे तु शुभमदं स्याच्छ्रीगौतमाद्या मुनयो बदन्ति ॥२०१॥ पत्नीके मर जानेपर प्रथम वर्षमें विवाह करे। यदि प्रथम वर्षमें न कर सके तो दूसरे वर्षमें करे। परन्तु वह विवाह विषम महीने में किया हुआ शुभ करनेवाला होता है, ऐसा गौतमादि मुनि कहते हैं ॥ २०१॥
अपुत्रिणी मृता भार्या तस्य भर्नुर्विवाहकम् ।
युग्माब्द युग्ममासे वा विवाहाहः शुभो मतः ।। २०२ ॥ पुत्र उत्पन्न न हुआ हो और स्त्री मर गई हो तो उस स्त्रीके पतिका विवाह युग्म वर्ष अथवा युग्म मासमें शुभ माना गया है ॥ २०२॥
प्रजावत्यां तु भार्यायां मृतायां वैश्यविप्रयोः।
प्रथमेऽब्दे न कर्तव्यो विवाहोऽशुभदो भवेत् ॥ २०३॥ अगर पुत्रवती स्त्री मर जाय तो ब्राह्मण और वैश्य पहले वर्षमें विवाह न करें । क्योंकि स्त्री-मरणके प्रथम वर्षमें विवाह करना उनके लिए अशुभ होता है ॥ २०३ ॥
__ अथ तृतीय भार्या-तीसरा विवाह । अकृत्वाविवाहं तु तृतीयां यदि चोद्वहेत् । विधवा सा भवेत्कन्या तस्मात्कार्य विचक्षणा ॥ २०४ ॥