________________
त्रैवर्णिकाचार ।
३४५
उस पुरुषका पिता, सिद्ध- प्रतिमा की पूजा कर और श्रावकों का यथायोग्य सत्कार कर मुख्य मुख्य सज्जनोंकी साक्षीपूर्वक अपनी सम्पत्तिका हिस्सा उसे देवे ॥ ६ ॥
धनं ह्युपादाय समस्तमेतत्स्थित्वा गृहे स्वस्य पृथग्यथास्वम् । कार्यस्त्वया दानपुरस्सरोऽङ्ग ! सुखाय साक्षात् गृहिधर्म एव ॥ ७ ॥ यथाऽस्मकाभिः सहधर्ममर्जितं यशोऽमलं स्वस्य धनेन यत्नतः । श्रियेऽथवाऽस्मत्पितृदत्तकेन वै तथा यशो धर्ममुपार्जय त्वकम् ॥ ८ ॥ इत्येवमेतर्ह्यनुशिष्य चैनं नियोजयेदुत्तमवर्णलाभे ।
स चाप्यनुष्ठातुमिहार्हति स्वं धर्म सदाच । रतयेति पूर्णम् ॥ ९ ॥ इति वर्णलाभः ।
और इस प्रकार उपदेश दे कि हे पुत्र ! इस अपने हिस्से के धनको लेकर और अपने घर में यथायोग्य अलहदा रहकर साक्षात्सुखके अर्थ दान-पूजापूर्वक गृहस्थधर्मका सेवन करना और जिस तरह हमने हमारे पिताके द्वारा दिये गये धनसे निर्मल कीर्ति और धर्मका यत्नपूर्वक उपार्जन किया है उसी तरह तू भी धर्म और यशका उपार्जन करना । इस तरह पिता अपने पुत्रको योग्य शिक्षा देकर उसे वर्णलाभ नामकी क्रियामें नियुक्त करे । वह पुत्र भी सदाचारसे परिपूर्ण अपने धर्मका अनुष्ठान करे । इस तरह वर्ण-लाभ क्रिया की जाती है ॥७-९॥
कुलचर्याका स्वरूप |
पूजा श्रीजिननायकस्य च गुरोः सेवाऽथवा पाठके द्वेधा संयम एव सत्तप इतो दानं चतुर्षा परम् I कर्माण्येव षडत्र तस्य विधिवत्सद्वर्णलाभं शुभं प्राप्तस्यैवमुशन्ति साधुकुलचर्या साधवः सर्वतः ॥ १० ॥
जिनदेवकी पूजा करना, गुरुकी और उपाध्यायकी सेवा करना, प्राणसंयम और इंद्रियसंयमइस तरह दो प्रकारके संयमका पालना, बारह प्रकारके तपश्चरणका करना और चार प्रकारके दान का देना- इन छह कर्मों के विधिपूर्वक करनेको साधुजन प्रशस्त और शुभ वर्णलाभ क्रियाको प्राप्त हुए पुरुषकी कुलचर्या कहते हैं । भावार्थ - देव पूजा आदि छह कमाँके करनेको कुलचर्या या कुलधर्म कहते हैं । यह क्रिया वर्णलाभ क्रियाके बादमें की जाती है ॥ १० ॥
गृहशिता क्रियाका स्वरूप ।
धर्मे दार्व्यमथोद्वहन् स्वकुलचर्यं प्राप्तवानञ्जसा
शास्त्रेण क्रियया विवाहविधिना वृत्त्या च मन्त्रैः शुभैः । स्वीकुर्याद्धि गृहेशितां स्वमनघं चौन्नत्यमेकं नयन् नानाका व्यकृतेन शुद्धयशसा लिप्सुर्यशः सुन्दरम् ॥ ११ ॥
इसके अनन्तर वह कुलचर्याको प्राप्त हुआ गृहस्थ, धर्ममें दृढ़ होता हुआ शास्त्रज्ञान, क्रियाविवाहविधि, वृत्ति, और शुभ मंत्रोंद्वारा तथा उत्तम कविता और शुद्ध यशपूर्वक अपनी एक अद्वि,
४४