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श्रेणिकाचार।
गृहाश्रममें अपनेको कृतार्थ मानता हुआ वह प्रशान्त क्रियाको प्राप्त हुआ गृहस्थ जब घर छोड़ने के लिए उद्यमी होता है तब उसकी यह गृहत्याग नामकी क्रिया की जाती है । इस क्रियाको करनेके पहले उसे सिद्धप्रतिमाकी पूजा करना चाहिए । बाद वह अपनेको सम्मत योग्य पुरुषों को बुलाकर उनकी साक्षी-पूर्वक अपने ज्येष्ठ पुत्र को इस प्रकार शिक्षा दे कि, हे पुत्र ! तुझे हमारे पीछे कुलपरंपरासे चले आये धर्म, क्रिया, संस्कार आदिका योग्य रीतिसे पालन करना चाहिए और हमने जो इस द्रव्यको तीन हिस्सोंमें बांट दिया है उसका इस प्रकार विनियोग करना-एक भाग धर्मकार्यों में खर्च करना, दूसरा भाग कुटुंबके भरण-पोषणमें लगाना और तीसरे भागको अपने भाइयों में बराबर बराबर बांट देना। और हे पुत्र ! तू सबमें बड़ा है, इसलिए हमारी इस सन्ततिका अच्छी तरह पालन करना। तू स्वयं शास्त्रोंको, आजीविकाके साधनोंको, गृहस्थसम्बन्धी क्रियाओंको
और (क्रियासम्बन्धी) मंत्रोंको भले प्रकार जाननेवाला है इसीलए कुलपरंपराका अच्छी तरह पालन करना, प्रतिदिन गुरुकी उपासना करना और देव-आप्तकी पूजा करना । इस प्रकार अपने ज्येष्ठ पुत्रको शिक्षा देकर मोहजन्य विकारका अर्थात् घर-कुटुंब आदिमें लगे हुए ममत्वका त्याग करे । और वह गृहस्थ स्वयं दीक्षाधारण करनेके लिए अपने घरको छोडे तथा काम और अर्थकी लालसाको छोड़कर कितनेही दिनों पर्यन्त धर्मध्यानपूर्वक निवास करे। इसीको गृहत्याग क्रिया कहते
दीक्षाधारण करनेकी विधि । किञ्चित्समालोक्य सुकारणं तद्वैराग्यभावेन गृहान्निसृत्य । गुरोः समीपं भवतारकस्य व्रजेच्छिवाशाकृतचित्त एकः ॥ २० ॥ नत्वा गुरूं भावविशुद्धबुद्धया प्रयाय दीक्षां जिनमार्गगां सः।
पूजां विधायात्र गुरोमुखाच्च कुयोद्वतानि प्रथितानि यानि ॥ २१॥ _कुछ विरागताके कारणोंको देखकर वैराग्यपने को प्राप्त होकर घरसे बाहर निकले और सिर्फ मोक्षकीही वांछा धारण कर संसार-समुद्रसे पार करनेवाले गुरुके पास जाय । वहां जाकर मन, वचन और कायकी विशुद्धिपूर्वक गुरुको नमस्कार करे और जिनेन्द्र भगवान्द्वारा कही गई जिनदीक्षा धारण करे । पश्चात् गुरुकी पूजा करे और उनके मुखसे ब्रताचरणका स्वरूप समझकर उनका पालन करे ॥ २०-२१ ॥
व्रतोंके नाम। महाव्रतानि पश्चैव तथा समितयः शुभाः।
गुप्तयस्तिस्र इत्येवं चारित्रं तु त्रयोदश ॥ २२ ॥ पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति इस तरह चारित्र तेरह प्रकारका है ॥ २२ ।।
पांच महाव्रतोंके नाम । हिंसासत्यङ्गनासङ्गस्तेयपरिग्रहाच्च्युतः। व्रतानि पञ्चसंख्यानि साक्षान्मोक्षसुखाप्तये ॥ २३ ॥