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सोमसेनभट्टारकविरचिततदन्ते शान्तिकं कृत्वा यथोक्तविधिना ततः ।
पुनश्चाद्वाहेऽथ वाग्दानं कृत्वा लग्नं विधीयते ॥ १८८ ॥ पिताके मरजानेपर एक वर्षतक, माताके मरजानेपर छह महीनेतक, पूर्व-पत्नीके मरजाने पर तीन महीने तक, पुत्र और भाईके मरजानेपर डेढ़ मास तक ( "मासार्ध" इस पाठकी अपेक्षा अर्ध महीनेतक ) तथा अन्य सपिंड गोत्रियोंके मरजानेपर एक माहतक विवाह न करे । उक्त अवधि बीत जानेके बाद शान्ति विधानपूर्वक ऊपर बताई हुई विवाह-विधिके अनुसार पुनः वाग्दान करके विवाह लग्न करे ॥ १८७-१८८ ॥
स्नानं सतैलं तिलमिश्रकर्म प्रेतानुयानं करकप्रदानम् ।
अपूर्वतीर्थामरदर्शनं च विवजयेन्मङ्गलतोऽब्दमेकम् ॥ १८९ ॥ तैल लगाकर स्नान करना, तिल-मिश्र क्रिया करना, मरे हुएके पीछे जाना अर्थात् मृत मनुप्यादिकको जलानेके लिए जाना, तथा पहले जिनका दर्शन नहीं किया ऐसे तीर्थों और देवोंका दर्शन करना, ये कार्य विवाह दिनसे लेकर एक वर्ष तक न करे ॥ १८९ ॥
ऊर्च विवाहात्तनयस्य नैव कार्यों विवाहो दुहितुः समार्धम् ।
अप्राप्य कन्यां श्वशुरामयं च वधूप्रवेशश्च गृहे न चादौ ॥ १९०॥ पुत्रके विवाहके बाद छह महीने से पहले कन्याका विवाह नहीं करना चाहिए और कन्याको ससुराल भेजे विना वधूका प्रथम-प्रवेश भी घरमें नहीं होना चाहिए। भावार्थ- पुत्र विवाहके बाद छह महीने तक पुत्रीका और पुत्रीके विवाहसे छह महीने पहले पुत्रका विवाह नहीं होना चाहिए ॥ १९० ॥
एकोदरप्रसूतानामेकस्मिन्नेव वत्सरे ।
न कुर्याचौलकर्माणि विवाहं चेपनायनम् ।। १९१ ॥ एक ही मातासे उत्पन्न अनेक पुत्राका चौलकर्म, उपनयन संस्कार और विवाह एक ही वर्षमें न करे ॥ १९१ ॥
न घुविवाहोर्ध्वमृतुत्रयेऽपि विवाहकार्य दुहितुश्च कुर्यात् ।
न मण्डनाच्चापि हि मुण्डनं च गोत्रकतायां यदि नाब्दमेकम् ॥१९२॥ पुरुष (पुत्र) विवाहके अनन्तर तीन ऋतु अर्थात् छह महीने के पहले पुत्रीका विवाह न करे । तथा विवाहके पश्चात् चौलकर्म भी न करे। यह नियम गोत्रैकता अर्थात् एक मातासे उत्पन्न पुत्रपत्रियों के लिए है। तथा एक ही वर्ष होता यह छह छह महीनेका नियम समझा जाय. वर्ष हो तो न समझा जाय । सो ही बताते हैं ॥ १९२ ॥
• फाल्गुने चेद्विवाहः स्याच्चैत्रे चैवोपनायनम् ।
. अब्दभेदाच कुर्वीत नर्तुत्रयविलम्बनम् ॥ १९३ ॥ फाल्गुनमें विवाह हो तो चैत्र महीनेमें वर्षभेद होने के कारण उपनयनसंस्कार और चकारस विवाह भी करें। वर्षभेदमें छह महीने तक विलम्ब करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। भावार्थ