Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Somsen Bhattarak, Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prasarak Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 382
________________ त्रैवर्णिकाचार। ३४१ एक संवत्सर हो तो एक मातासे उत्पन्न दो पुत्रोंका अथवा दो पुत्रियोंका अथवा पुत्र और पुत्रीका छह महीने पहले पहले विवाह न करे। हां, यदि वर्ष-भेद हो तो छह महीनेके पहले पहले कर सकते हैं। इसी तरह पत्र अथवा पत्रोके विवाह के छह महीने पहले एक संवत्सरमें भी न करे। वर्ष-भेद हो तो कोई हानि नहीं है । ऊपरके श्लोकोंमें पुनहक्तताका विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि ये श्लोक भिन्न भिन्न ऋषियों के बनाये हुए हैं, यहांपर उनका संग्रह किया गया है। अतः पुनरुक्तताका आना स्वाभाविक बात है ॥ १९३ ॥ एकमातृप्रसूतानां पुत्रीणां परिवेदने । दोषः स्यात्सर्ववर्णेषु न दोषो भिन्नमातृषु ॥ १९४ ॥ एक मातासे उत्पन्न पुत्रियों के परिवेदनका सभी वर्गों में दोष माना गया है । परन्तु भिन्नभिन्न माताओंसे उत्पन्न पुत्रियों के परिवेदनमें कोई दोष नहीं है। भावार्थ-बड़ी पुत्रीके विवाहके पहले छोटी पुत्रीका विवाह करनेको परिवेदन कहते हैं। एक मातासे उत्पन्न हुई दो पुत्रियोंमें से छोटी पुत्रीका विवाह पहले करना और बड़ी पुत्रीका बादमें करना दोष है । परन्तु भिन्न भिन्न माताओंसे उत्पन्न हुई दो पुत्रीयोंमेंसे छोटी पुत्रीका विवाह पहले कर दिया जाय और बड़ी पुत्रीका बादमें करे तो कोई दोष नहीं है ॥ १९४ ॥ कन्याका रजोदोष । असंस्कृता तु या कन्या रजसा चत्परिप्लुता । भ्रातरः पितरस्तस्याः पतिता नरकालये ॥ १९५ ॥ विवाह न होनेके पहले यदि कन्या रजस्वला हो जाय तो उसके भाई और माता-पिता नरक को जाते हैं । भावार्थ-बारह वर्षसे ऊपर कन्याओंका रजोधर्मका समय है अतः उनका विवाह बारह वर्ष तक कर देना चाहिए । यद्यपि कोई कोई कन्याएं बारह वर्षसे ऊपर भी रजस्वला होती हैं, परंतु तो भी कितनी ही कन्याएं बारह वर्षमें भी हो जाती हैं अतः इस अवधिके भीतर ही विवाह कर देना चाहिए; क्योंकि विवाह पहले रजस्वला होनेमें उक्त दोष माना गया है ॥ १९५ ॥ पितुहे तु या कन्या रजः पश्येदसंस्कृता । सा कन्या वृषली ज्ञेया तत्पतिवृषलीपतिः॥ १९६ ॥ जो कोई कन्या अपने विवाहसे पहले पहले रजोधर्मसे युक्त हो जाय तो उसको शूद्रा या रजस्वला समझना चाहिए और उसके पतिको भी शूद्राका पति या रजस्वलाका पति समझना, चाहिए ॥१९६॥ अप्रजा दशमे वर्षे स्त्रीपजां द्वादशे त्यजेत् । मृतप्रजां पञ्चदशे सद्यस्त्वाप्रयवादिनीम् ॥ १९७॥ _____प्रथम ऋतुमतीके समयसे लेकर दशवें वर्षतक जिस स्त्रीके सन्तति न हो तो उसके होते हुए दूसरा विवाह करे । तथा जिसके केवल कन्याएं ही होती हों-पुत्र न होते हों तो बारहवें वर्ष बाद उसके होते हुए दूसरा विवाह करे । तथा जिसके संतति तो होती हो पर जीती न हो तो पंद्रह वर्ष बाद दूसरा विवाह करे । और अपुत्रवती अप्रियवादिनीके होते हुए तत्काल दूसरा विवाह करे । अप्रियवादिनीका अर्थ व्यभिचारिणी भी है ॥ १९७॥ . ....... ..... ...

Loading...

Page Navigation
1 ... 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440