Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Somsen Bhattarak, Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 378
________________ त्रैवर्णिकाचार 1 ३३७ निमित्त अपने कुटुंबियोंका सत्कार करनेमें जो खर्च पड़ा हो वह सब मय वृद्धिके कन्यादाता वरको देवे । अतः इस श्लोकका अर्थ संप्रदायविरुद्ध नहीं है । परंतु जो लोग 'चतुर्थीमध्ये' का अर्थ विवाह हो चुकने के बाद चौथा दिन करते हैं उनका वह अर्थ अवश्य संप्रदाय के विरुद्ध है || १७४ ॥ प्रवरैक्यादिदोषाः स्युः पतिसङ्गादधो यदि । दत्तामपि हरेद्दद्यादन्यस्मा इति केचन ॥ १७५ ॥ अथवा किन्हीं किन्हीं ऋषियोंका ऐसा भी मत है कि यदि पतिसंग - पाणिपीड़न से पहले वरणक्रियामें वर और कन्या के प्रवर ( ऋषिमोत्र ), गोत्र ( वंशपरंपरा ) आदि एक या सदृश हों तो कन्यादाता उस वाग्दत्ता कन्याको उस वरको न देकर किसी भिन्न प्रवर, गोत्र आदि गुणवाले वरको देवे ॥ १७५ ॥ कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेदिति गालवः । कस्मिँश्विदेश इच्छन्ति न तु सर्वत्र केचन ॥ १७६ ॥ कलियुगमें एक धर्मपत्नीके होते हुए दूसरा विवाह न करे, ऐसा गालव ऋषिका उपदेश है । परंतु उनके इस उपदेशको किसी किसी देश में कोई कोई मानते हैं, सब जगह सब लोग नहीं मानते। अथवा किसी किसी देशमें कोई कोई एक धर्मपत्नीके होते हुए भी दूसरा विवाह स्वीकार करते हैं, सब देशों में नहीं । भावार्थ- - ब्राह्मण समाज में भी प्रथम विवाहितांको धर्मपत्नी माना है । उसके होते हुए द्वितीय विवाहिताको रतिवर्धिनी-भोगपत्नी कहा है । प्रथम विवाहिता सवर्णा होना चाहिए, ऐसा मनुका उपदेश है । मनुके उस उपदेश से यह भी झलकता है कि प्रथम सवर्णा के साथ पाणिग्रहण करना ही श्रेष्ठ है और यह प्रथम विवाह ही धर्मविवाह है । उसके होते हुए अन्य विवाह काम्यविवाह है । याज्ञवल्क्यका मत है कि सवर्णा स्त्रीके होते हुए असवर्णा स्त्रीसे धर्मकृत्य न कराये जावें । सवर्णाओंमें भी धर्मकार्यों में प्रथम विवाहिताको नियुक्त करे, मध्यमा या कनिष्ठाको नहीं । इससे यह फलितार्थ निकला कि पहला सजाति कन्या के साथ विवाह करना ही श्रेष्ठ और धर्मविवाह है, द्वितीय नहीं । अतः इसी द्वितीय विवाहका गालव ऋषि निषेध करते हैं । वे दूसरा काम्यविवाह स्वीकार नहीं करते । कोई कोई ब्राह्मण - ऋषि दो विवाहों को भी धर्म्यविवाह स्वीकार करते हैं और तृतीय विवाहका निषेध करते हैं । तब संभव है कि गालव ऋषि द्वितीय विवाहका भी निषेध करते हों। इसमें कोई आश्चर्य नहीं । तथा ब्राह्मण संप्रदाय में कलियुग में कई कृत्योंके करनेका निषेध किया है । जैसे -पतिके मरजानेपर पुत्र न हो तो देवरसे एक पुत्र उत्पन्न करना, अस्वर्णा के साथ विवाह करना आदि । अत १ - प्रथमा धर्मपत्नी स्याद्वितीया रतिवर्धिनी । दृष्टमेव फलं तत्र नादृष्टमुपपद्यते ॥ २-सवर्णा द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि । कामतस्तु प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो वराः ॥ ३- सत्यामन्यां सवर्णायां धर्मकार्ये न कारयेत् । सवर्णासु विधौ धर्म्ये ज्येष्ठया न विनेतरा || ४- ब्रह्मचर्यं समाप्यैकां भार्या यो द्वितीयां तथा । तृतीयां नो वहेद्विप्र इति धर्मकृतो विदुः ॥ ५- विधवायां प्रजोत्पत्तौ देवरस्य नियोजनं । ६ - कन्यानामसवर्णानां विवाहच द्विजन्मभिः । न कर्तव्यः कलौ युगे इति संबधः । ४२

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