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सोमसेनभट्टारकविरचितं
उच्चैर्गोपुरराजितेन सुवृतं सालेन रम्बेन वै शालामण्डपतोरणान्वितवरं श्रीभव्यसंधैर्भृतम् । गीतैर्वाद्यनिनादगर्जनिवहैः शोभापरं मंगलम् जैनेन्द्रं भवनं गिरीन्द्रसदृशं पश्येत्ततः श्रावकः || ४६ ॥
इसके बाद वह श्रावक, ऊंचे ऊंचे दरवाजोंसे सुशोभित, मनोहर परकोटेसे बेढ़े हुए, शाला मण्डप और तोरणसे युक्त, भव्य समूहों से खचाखच भरे हुए, गीत बाजे वगैरह के शब्दों से गुंजार करते हुए, परम रमणीय, मंगलस्वरूप, सुमेरुके समान ऊंचे श्रीजिनमन्दिरका अवलोकन करे ॥ ४६ ॥
चैत्यालय स्तुति ।
कुसुमसघनमाला धूपकुम्भा विशालाश्रमरयुवतिताना नर्तकी नृत्यगाना | कनककलशकेतूत्तुङ्गशृङ्गाग्रशाला सुरनरपशुसिंहा यत्र तिष्ठन्ति नित्यम् ॥ ४७ ॥
जिसमें, दरवाजों पर फूलोंकी मालाएं लटक रही हैं, बड़े बड़े धूप-घट जहांपर रक्खे हुए हैं, युवतियाँ चमर ढौर रही हैं, नाचनेवालियां नाच रही हैं और मंगलगान कर रही हैं, जिसके उंचे शिखरपर सोनेकें कलश चढे हुए हैं, ध्वजाएँ फहरी रही हैं, जिसमें देव मनुष्य पशु सिंह आदि सब जातिके प्राणी अपना अपना वैरभाव छोड़ कर एक जगह निरन्तर बैठते हैं ॥ ४७ ॥
श्रीमत्पवित्रमकलङ्कमनन्तकल्पं स्वायम्भुवं सकलमंगलमादितीर्थम् । नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनानां त्रैलोक्यभूषणमहं शरणं प्रपद्ये ॥ ४८ ॥
जो परम पवित्र है, बुरे कर्मोंसे रहित निर्दोष है, अनन्त कल्पपर्यन्त परमात्मा के रहनेका स्थान है, सकल मंगलों में उत्तम मंगल है, मुख्य तीर्थस्थान है, जिसमें निरन्तर उत्सव होते रहते हैं, जो अच्छे अच्छे मणियोंका बनाया गया है और तीन लोकका भूषणभूत है, ऐसे जिन चैत्यालयकी शरणको आज मैं प्राप्त हुआ हूं ॥४८॥
जयति सुरनरेन्द्र श्रीसुधानिर्झरिण्याः कुलधरणिधरोऽयं जैनचैत्याभिरामः । प्रविपुल फलधर्मानो कहाग्रप्रवालप्रसरशिखरशुम्भत्केतनः श्रीनिकेतः ॥ ४९ ॥