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त्रैवर्णिकाचार।
मिथ्यात्वके पांच भेद। एयंतबुद्धदरसी विवरीओ बंभ तावसो विणो ।
इंदो वि य संसयिदो मकडिओ चेव अण्णाणी ॥ १२ ॥ सर्वथा क्षणिकको एकान्त कहते हैं । इस एकान्त मिथ्यात्वका माननेवाला बौद्ध है । ब्राह्मण विपरीत-मिथ्यांदृष्टि है, जो यज्ञमें प्राणियोंको मारनेसे मुक्ति बताता है । तापस, विनय-मिथ्याडष्टि है. जो हरएककी विनय करनेसे ही मुक्ति होना स्वीकार करता है । इंद्रचन्द्रनागेन्द्र गच्छका स्वामी इन्द्राचार्य संशय-मिथ्यादृष्टि है, जो इस प्रकारके सन्देहमें ही झूलता रहा है कि,सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यक्चरित्र मुक्तिके कारण हो सकते हैं या नहीं ? इसीलिए वह सभी मतोंसे मुक्ति स्वीकार करता है। श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकरके तीर्थमें उत्पन्न हुआ द्वादशांगका वेत्ता मस्करी मुनि अज्ञानमिभ्यादृष्टि है, जो अज्ञानसे मुक्ति मानता है ॥ १२॥
सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कारण । आसन्नभव्यताकर्महानिसज्ञित्वशुद्धिभाक् ।
देशनाधस्तमिथ्यात्वो जीवस्सम्यक्त्वमश्नुते ॥ १३ ।। जो आसन्न-भव्य है, जिसके मिथ्यात्वादि कर्मोंकी स्थिति अन्तःकोटाकोटी प्रमाण होगई है, जो संज्ञी है, जो विशुद्ध परिणामोंका धारण करनेवाला है, और उपदेश, जातिस्मरण आदिके द्वारा जिसका मिथ्यात्व नष्ट होगया है, वह जीव सम्यक्त्वके योग्य होता है । भावार्थ-आसन्न-भव्यता आदि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कारण हैं ॥ १३ ॥ .
मतेषु विपरीतेषु मदुक्तं दुष्टबुद्धिभिः।
श्रद्धेयं न कदा तत्त्वं हिंसापातकदोषदम् ॥ १४ ॥ . . विपरीत-मतोंमें दुष्ट-बुद्धि पुरुषोंने जो हिंसा आदि पापोंके करनेवाले तत्वोंका कथन किया है उन तत्वोंका कभी भी श्रद्धान-विश्वास नहीं करना चाहिए ॥ १४ ॥
सच्चे देवका लक्षण । सर्वदर्शी च सर्वज्ञः सिद्ध आप्तो निरञ्जनः।
अष्टादशमहादोषै रहितो देव उच्यते ॥ १५ ॥ जो सर्वदशी है, सर्वश है, कृतकृत्य है, अवंचक है-संसारी जीवोंको पंचनारहित हितका उपदेश करनेवाला है, चार घातिया कर्मोंसे रहित है और क्षुधा-तृषा आदि अठारह महादोषोंसे रहित-निर्दोष है, उसे देव कहते हैं ॥ २५॥
__ अठारह दोषोंके नाम। क्षुत्तुद्रुग्भयरागरोषमरणस्वेदाश्च खेदारतिः।। चिन्ताजन्मजराश्च विस्मयमदौ निद्रा विषादस्तथा ।। मोहोऽष्टादशदोषदुष्टरहितः श्रीवीतरागो जिनः । पायात्सर्वजनान् दयालरघतो जन्तोः परं दैवतम् ॥ १६ ॥