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सोमसेनभट्टारकविरचितपिता, पितामह ( पिताका पिता-आजा किंवा बाबा), भाई, पितृव्य (चाचा), गोत्रज मनुष्य, गुरु, मातामह (माताका पिता) और मामा, ये कन्याके क्रमसे बंधु हैं ।। ८२ ॥
__ कन्याका अधिकार। पित्रादिदात्रभावे तु कन्या कुर्यात्स्वयंवरम् ।
इत्येवं केचिदाचार्याः पाहुमहति सङ्कटे ॥ ८३ ॥ विवाह करनेवाले पिता, पितामह आदि न हों, तो ऐसी दशा में कन्या स्वयं-अपने आप अपमा विवाह करे। ऐसा कोई कोई आचार्य कहते हैं। यह विधि महासंकटके समय समझना चाहिए ॥ ८३ ॥
अथ विवाहकर्म-विवाह-विधि । कन्यायाः सदनं गच्छेत् मण्डपे तोरणान्विते । कन्याया जननी वेगादागत्य पूजयेदरम् ॥ ८४ ।। कन्यापित्रादिभिदत्ते चोदुम्बरादिवृक्षकैः॥
निर्मिते चासने सम्यक् सुदृष्टयोपरिशेद्वरः॥ ८५ ॥ वर कन्याके घरपर जावे । वहां वह तोरण आदिसे सुसजित मंडपमें कन्याके पिता आदि द्वारा बिछाये हुए और उदुंबर आदि वृक्षकी लकड़ीके बने हुए तखत-पट्टेपर बैठे । पश्चात् कन्याकी माता शीघ्र आकर वरका आव-आदर करे ॥ ८४-८५ ।।
वर पूजन । ततः प्रक्षालयेत्पादौ वरस्यायं विधाय च।
यज्ञोपवीतं मुद्रादिभूषा एवार्पयेद्वरे ॥८६॥ ___ कन्याका पिता पहले वरके पैर प्रक्षालन कर अर्थ्य चढ़ावे । अनन्तर यज्ञोपवीत मुद्रिका आदि आभूषण उसकी भेंट करे ॥ ८६ ॥
वधू-पूजन। ततः पाचं समादाय कन्यकां सेचयेच्छनैः।
अर्घ्यदानं ततो दत्वा कन्यकामपि पूजयेत् ॥ ८७ ॥ वर-पूजाके अनन्तर कन्याकी पूजा करे। वह इस तरह कि वरका चरणोदक लेकर धीरेसे कन्याका अभिषेचन करे-कन्याके पैर धोवे और एक अर्घ्य चढ़ावे ॥ ८७ ॥
अर्घ्य-दान ।। तद्वरोऽपि प्रदत्तार्क्ष्यमञ्जल्याऽऽदाय सादरम् ।
निरीक्ष्याङ्गुलिरन्धेस्तस्रावयेद्भाजने शनैः ॥ ८८ ॥ वह वर, जो अर्घ्य कन्याका पिता उसके हाथमें देता है उसे भारी आदरके साथ अपनी अंजलीमें लेकर और उसका अच्छी तरह निरीक्षण कर धीरेसे अंगुलियोंके छेदमें होकर पात्रमें क्षेपण करे ॥ ८८॥