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सोमसेमभट्टारकविरचितगृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य ।
भिक्षाशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः॥१४५॥ जो घरसे निकलकर मुनिवनमें जाकर गुरुके समीप व्रत धारण कर तपश्चरण करता हुआ भिक्षाभोजन करता है और खंडवस्त्रधारी या कौपीनधारी है वह उत्कृष्ट श्रावक है ॥ १४५ ।। अथाशाधरः-स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने ।
स श्रावकग्रह गत्वा पाणिपास्तदङ्गणे ॥ १४६॥ स्थित्वा भिक्षा धर्मलाभं भणित्वा माथयेद्वा । मौनेन दर्शयित्वाऽङ्ग लाभालाभे समोऽचिरात् ॥ १४७ ॥ निगेत्यान्यगृहं गच्छद्भिक्षोयुक्तश्च केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यात्तद्भुक्त्वा यद्भिक्षित मनाक् ॥ १४८ ।। मार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत्स्वोदरपूरणीम् ।
लभेत मासु यत्रांभस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥ १४९ ।। पंडितप्रवर आशाधरजी इस विषयमें कुछ विशेष कहते हैं । इस उत्कृष्ट श्रावकके दो भेद हैं। एक क्षुल्लक और दूसरा ऐलक । प्रथम क्षुल्लकके विषय में कहते हैं कि वह बैठकर अपने हाथ में अथवा वर्तनमें भोजन करे । श्रावकके घरपर खाली हाथ जावे । श्रावकके घरके आँगन में खड़ा रह. कर 'धर्म-लाभ हो' ऐसा कहकर भिक्षाकी प्रार्थना करे अथवा मौनपूर्वक दाताको अपना शरीरमात्र दिखाकर भिक्षा मांगे । भिक्षा मिलने तथा न मिलनेपर राग-द्वेष छोड़ समता-भाव धारण करे । वहांसे निकलकर दूसरे घरमे जावे । यदि भिवाके समय किसी श्रावकने अपने घरपर भोजन करनेक प्रार्थना की हो तो जो कुछ उसे पहले किसी घरपर भिक्षा मिली हो, प्रथम उसे खाकर, बाद उसके घरका अन्न-भक्षण करे। यदि किसीने भोजनकी प्रार्थना न की हो तो अपना पेट भरने लायक भिक्षा मांगे । और जिस श्रावकके घरपर प्रासुक जल मिल जाय वहीं बैठकर उस भिक्षाको देख-भालकर खावे ॥ १४६-१४९ ॥
कौपीनोऽसौ रात्रिप्रतिमायोगं करोति नियमेन ।
लोचं पिच्छं धृत्वा भुङ्क्ते ह्युपविश्य पागिपुटे ॥ १५० ॥ दूसरा ऐलक श्रावक फक्त कौपीन पहने, नियमसे रात्रिमें प्रतिमायोग धारण करे, लौंच करे, पिच्छी रक्खे, और बैठकर पाणिपुटमें भोजन करे ॥ १५ ॥
देशविरतीका विशेष क व्य । वीरचर्या च सूर्यमतिमा त्रैकाल्ययोगनियमश्च ।
सिद्धान्तरहस्यादावध्ययन नास्ति देशविरतानाम् ॥१५१ ।। देशविरती श्रावकोंको वीरचर्या-भ्रामरी-वृत्तिसे भोजन करने, दिन प्रतिमा, त्रिकालयोगगर्मी में पर्वतके ऊपर, वर्षा में वृक्षके नीचे, शीतकालमें नदी-समुद्रके किनारे अथवा चौहटमें योग धारण करने और सिद्धांतशास्त्र, प्रायश्चित्तशास्त्र आदिका अध्ययन करनेका अधिकार नहीं है॥१५॥