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पंच उदुंबरोंमें सूक्ष्म स्थावरजीव और स्थूल सजीव बहुत होते हैं। इसलिए इन जीवकी रक्षाके निमित्त श्रोजिनदेवने पंच उदुंबर के त्यागनेका उपदेश दिया है ।। फल-भक्षण- त्याग ।
१०४ ॥
रससम्पृक्तफलं यो दशति त्रसतनुरसैश्व सम्मिश्रम् । तस्य च मांस निवृत्तिर्विफला खलु भवति पुरुषस्य ॥ जो पुरुष सजीवों के शारीरिक रससे मिले हुए रसीले फलोंको खाता है व्रत व्यर्थ है । भावार्थ - जिन फलों में सजीव हों उन फलोंको नहीं खाना चाहिए ॥ १०५ ॥ छ जलकी मर्यादा |
गालितं शुद्धमप्यम्बु सम्मूच्छति मुहूर्ततः ।
अहोरात्रात्तदुष्णं स्यात्काञ्जिकं दूरवह्निकम् ।। १०६ ॥
छने हुए शुद्ध और किसी पदार्थद्वारा विकृत न किये गये कुए बावड़ीके जलमें दो घड़ीके बाद त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। गर्म किये हुए जलमें एक दिन-रात के बाद - आठ पहरके पीछे त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । और कांजिकमें ठंडे हो जानेके बाद ही जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥ १०६ ॥ तिलतण्डुलतोयं च प्रासुकं भ्रामरीगृहे ।
१०५ ॥
उसका मांस त्याग
न पानीयं मतं तस्मान्मुखशुद्धिर्न जायते ।। १०७ । जिस घर में भिक्षा के लिए जाते हैं और चॉवल धोये हों वह पानी प्रासुक है; योग्य नहीं माना गया है ।। १०७ ।।
जल प्राशुक करने की विधि | एलालवङ्गतिलतण्डुलचन्दनार्थः, कर्पूरकुंकुमतमालसुपलबैश्च ।
सुप्रासुकं भवति खादिरभस्मचूर्णैः पानीयमनिपचितं त्रिफलाकषायैः ।। १०८ ॥ इलायची, लौंग, चंदन, कपूर, केसर, ताडवृक्षके कोमल पत्ते, खैर वृक्षकी लकड़ीकी राख तथा त्रिफला चूर्णसे, तिल चावलोंके धोनेसे और अग्निमें गर्म करनेसे पानी प्रासुक हो जाता है ।। १०८ ।।
उसको 'भ्रामरी घर' कहते हैं । ऐसे घर में जिससे तिल परन्तु उससे मुखशुद्धि नहीं होती, इसलिए वह पीने
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चम्मद जलणे हे उप्पज्जइ वियलतियं पंचिदियं ।
संघाने पुण भुत्ते सीइजुए मंसवए अइचारी ॥ १०९ ॥
चमड़े के वर्तनमें भरे हुए पानी, घृत वगैरह में दो-इंद्रिय, तीन-इंद्रिय, चार- इंद्रिय और पांचइंद्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं । इनको तथा संधान- नीबू, आम आदिका आचार खानेसे मांस त्याग व्रतमें दोष आता है ॥ १०९ ॥
'शिक्षावत के भेद | देशावकाशिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा ।
वैयावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ ११० ॥
१ नोट - यद्यपि क्रमानुसार यहां इस भोगोपभोगपरिमाण व्रतके और आगेके शेष व्रतोंके भी अतीचार कहने चाहिए थे। परंतु सामान्य संग्रह ग्रन्थ होनेके कारण नहीं कहे हैं ।