Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Somsen Bhattarak, Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prasarak Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 340
________________ dafoneचार २९९ 1 पंच उदुंबरोंमें सूक्ष्म स्थावरजीव और स्थूल सजीव बहुत होते हैं। इसलिए इन जीवकी रक्षाके निमित्त श्रोजिनदेवने पंच उदुंबर के त्यागनेका उपदेश दिया है ।। फल-भक्षण- त्याग । १०४ ॥ रससम्पृक्तफलं यो दशति त्रसतनुरसैश्व सम्मिश्रम् । तस्य च मांस निवृत्तिर्विफला खलु भवति पुरुषस्य ॥ जो पुरुष सजीवों के शारीरिक रससे मिले हुए रसीले फलोंको खाता है व्रत व्यर्थ है । भावार्थ - जिन फलों में सजीव हों उन फलोंको नहीं खाना चाहिए ॥ १०५ ॥ छ जलकी मर्यादा | गालितं शुद्धमप्यम्बु सम्मूच्छति मुहूर्ततः । अहोरात्रात्तदुष्णं स्यात्काञ्जिकं दूरवह्निकम् ।। १०६ ॥ छने हुए शुद्ध और किसी पदार्थद्वारा विकृत न किये गये कुए बावड़ीके जलमें दो घड़ीके बाद त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। गर्म किये हुए जलमें एक दिन-रात के बाद - आठ पहरके पीछे त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । और कांजिकमें ठंडे हो जानेके बाद ही जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥ १०६ ॥ तिलतण्डुलतोयं च प्रासुकं भ्रामरीगृहे । १०५ ॥ उसका मांस त्याग न पानीयं मतं तस्मान्मुखशुद्धिर्न जायते ।। १०७ । जिस घर में भिक्षा के लिए जाते हैं और चॉवल धोये हों वह पानी प्रासुक है; योग्य नहीं माना गया है ।। १०७ ।। जल प्राशुक करने की विधि | एलालवङ्गतिलतण्डुलचन्दनार्थः, कर्पूरकुंकुमतमालसुपलबैश्च । सुप्रासुकं भवति खादिरभस्मचूर्णैः पानीयमनिपचितं त्रिफलाकषायैः ।। १०८ ॥ इलायची, लौंग, चंदन, कपूर, केसर, ताडवृक्षके कोमल पत्ते, खैर वृक्षकी लकड़ीकी राख तथा त्रिफला चूर्णसे, तिल चावलोंके धोनेसे और अग्निमें गर्म करनेसे पानी प्रासुक हो जाता है ।। १०८ ।। उसको 'भ्रामरी घर' कहते हैं । ऐसे घर में जिससे तिल परन्तु उससे मुखशुद्धि नहीं होती, इसलिए वह पीने " चम्मद जलणे हे उप्पज्जइ वियलतियं पंचिदियं । संघाने पुण भुत्ते सीइजुए मंसवए अइचारी ॥ १०९ ॥ चमड़े के वर्तनमें भरे हुए पानी, घृत वगैरह में दो-इंद्रिय, तीन-इंद्रिय, चार- इंद्रिय और पांचइंद्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं । इनको तथा संधान- नीबू, आम आदिका आचार खानेसे मांस त्याग व्रतमें दोष आता है ॥ १०९ ॥ 'शिक्षावत के भेद | देशावकाशिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा । वैयावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ ११० ॥ १ नोट - यद्यपि क्रमानुसार यहां इस भोगोपभोगपरिमाण व्रतके और आगेके शेष व्रतोंके भी अतीचार कहने चाहिए थे। परंतु सामान्य संग्रह ग्रन्थ होनेके कारण नहीं कहे हैं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440