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त्रैवर्णिकाचार |
रक्षाका उपाय बताया गया हो वह चरणानुयोग शास्त्र है। इस शास्त्रके ज्ञानको चरणानुयोग-शान कहते हैं; और यह ज्ञान, सम्यग्ज्ञान है ॥ ६२ ॥
- ज्ञान ।
द्रव्यानुयोग- इ जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालोकमतनुते ॥ ६३ ॥
द्रव्यानुयोग नामका दीपक, जीव, अजीव सुतत्त्वोंको, पुण्य और पापको, बंध और मोक्षको तथा श्रुतविद्या-भावश्रुतके प्रकाशको विस्तारता है । भावार्थ - जिनमें मुख्य करके इन विषयोंका वर्णन हो उसे द्रव्यानुयोग - शास्त्र कहते हैं । इनके ज्ञानका नाम द्रव्यानुयोग - ज्ञान है । यह ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान है । सारांश—ये चारों जातिके शास्त्र सम्यक्शास्त्र हैं, और इनका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । सम्यक्चारित्र |
हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुन सेवापरिग्रहाभ्यां च ।
पापालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ ६४ ॥
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पापास्रव के कारण हिंसा, झूठ, चौरी, कुशील सेवन और परिग्रह, इन पांच पापोंसे विरक्त होना सम्यग्ज्ञानियोंका चारित्र है || ६४ ॥
सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्व संगविरतानाम् ।
अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ॥ ६५ ॥
यह चारित्र दो प्रकारका है, एक सकल चारित्र और दूसरा विकल- एकदेश चारित्र । सकल चारित्र सब तरहके परिग्रहोंसे रहित महामुनियोंके होता है ! और विकल चारित्र परिग्रहयुक्त गृहस्थोंके होता है || ६५ ॥
सांगार-गृहस्थका लक्षण ।
अनाथविद्यादोषोत्थचतुः संज्ञाज्वरातुराः ।
शश्वत्सज्ज्ञानविमुखाः सागारा विषयोन्मुखाः ॥ ६६ ॥
भय,
जो अनादिकालीन अविद्यारूप वात, पित्त और कफ, इन तीन दोषोंसे उत्पन्न हुए आहार, मैथुन और परिग्रह, इन चार संज्ञारूपी ज्वरसे पीड़ित हैं, अतएव सदा अपने आत्मज्ञानसे विमुख हैं और सांसारिक विषयोंमें लीन हैं, वे सागार - घर - कुटुंब में रहनेवाले गृहस्थ होते हैं ।। ६६ ॥ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् ।
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥ ६७ ॥
जो गृहस्थ होकर भी निर्मोह है - घर - कुटुम्बादि में ममत्वपरिणामरहित है, वह मोक्षमार्ग में स्थित है | और जो मुनि होकर भी नाना मोहजाल में फंसा हुआ है वह मोक्षमार्गम स्थित नहीं है। इसलिए मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ होता है ।। ६७ ॥
सम्यग्दृष्टि श्रावकका लक्षण
अष्टमूलगुणाधारो सप्तव्यसनदूरगः ।
सद्गुरुवचनासक्तः सम्यग्दृष्टिः स उच्यते ॥ ६८ ॥