________________
२८८
सोमसेनभट्टारकविरचितकर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य ही केवली अथवा श्रुतकेवलीके निकट दर्शन-मोहनीयके क्षय करनेका प्रारंभ करता है और उसका निष्ठापन-पूर्ति सब जगह करता है ॥ ४८ ॥
दंसणमोहक्खविदे सिज्झदि एक्केव तिदियतुरियभवे ।...
णादिक्कदि तुरियभवं ण विणस्सदि सेससम्मं वा ॥ ४९ ॥ __दर्शन-मोहका क्षय हो जानेपर एक ही भवमें मुक्ति हो जाती है अथवा तीसरे या चौथे भवमें मुक्ति होती है । परंतु चौथे भवका कभी उल्लंघन नहीं होता-चौथे भवमें नियमसे मुक्ति हो ही जाती है। जैसे औपशमिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होकर छूट जाते हैं, वैसे यह शायिक सम्यक्त्व एक बार होकर कभी नहीं छूटता है । भावार्थ-जैसे किसी मनुष्यके क्षायिक सम्यक्त्व हुआ और वह यदि चरम-शरीरी है तो उसी भवसे मुक्ति हो जाती है। इस अपेक्षा एक ही भवसे मुक्ति होती है। यदि उसके पहले नरककी आयु बंध गई हो तो नरकको, और यदि आयु न बंधी हो तो स्वर्गको जाता है। वहांसे च्युत हो, मनुष्य होकर मुक्ति जाता है। इस तरह दो मनुष्य-भव और एक नरक या देव-भव, इन तीन भवोंमें मुक्ति चला जाता है। यदि किसी मनुष्यको तिर्यच या मनुष्यकी आयुका बंध हो चुकनेके बाद क्षायिक सम्यक्त्व हुआ है तो वह मरकर भोग-भूमिमें मनुष्य या तिर्यंच-पुरुष (पुरुष लिंगधारी तिर्यच) होता है । वहांसे मरकर वह सीधा स्वर्गको जाता है । वहांसे व्युत हो मनुष्य-भव प्राप्त कर मुक्तिको जाता है । इस अपेक्षा चार भव होते हैं-एक सम्यक्त्व उत्पन्न होनेका मनुष्य-भव, दूसरा भोगभूमिका भव, तीसरा देव-भव और चौथा फिर मनुष्य-भव । दूसरे भवमें कभी मुक्ति नहीं होती है ॥ ४९ ॥
व्रताद्धृष्टस्य सम्यक्त्वं वर्तते यदि चेतसि ।
आर्द्रः सिध्यति भव्यः स चारित्रधरणक्षणे ॥५०॥ जो मनुष्य चारित्रसे भ्रष्ट है, परन्तु यदि उसकी आत्मामें सम्यग्दर्शन मौजूद है तो, वह भव्य अपने परिणामोंसे आर्द्र है; इसलिए वह नियमसे चारित्र धारणकर नियमसे सिद्धिको प्राप्त होता है ॥ ५० ॥
सम्यक्त्वकी प्रशंसा। .. विद्यावृत्तस्य सम्भूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥५१॥ सम्यक्त्वके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और मोक्षप्राप्तिरूप फलकी प्राप्ति नहीं होती है। जैसे बीजके बिना न तो वृक्ष ही ऊगता है, न उसकी पृथ्वीपर स्थिति ही रह सकती है, न वह बढ़ ही पाता है, और न उसके फल ही लगते हैं। ५१ ॥
न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ ५२ ॥ तीनों कालों में और तीनों जगतोंमें प्राणियोंका भला करनेवाला सम्यक्त्वके बराबर न तो कोई हुआ है, न है,और न होगा। और मिथ्यात्वके बराबर जीवका न कोई दूसरा दुश्मन हुआ,न है, और न होगा । अतः मिथ्यात्वको त्यागना चाहिए और सम्यक्त्वको ग्रहण करना चाहिए ॥ ५२ ॥