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सोमसेनभट्टारकविरचित
प्रभावना अंगका स्वरूप। अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्मभावना ॥ २७ ॥ अज्ञानरूपी अन्धकारके फैलावको दूर कर जैसे बने वैसे जिनशासनका महात्म्य-प्रभाव परमतावलंबियोंके सामने जाहिर करना प्रभावना अंग है ॥ २७ ॥
अष्टाङ्गैः पाळितं शुद्धं सम्यक्त्वं शिवदायकम् ।
न हि मंत्र्योऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ २८ ॥ उक्त आठ अंगोंके साथ साथ निरतिचार पालन किया हुआ सम्यग्दर्शन मोक्षको देनेवाला है। यदि इनमेंसे एक भी अंग हीन हो तो वह सम्यग्दर्शन संसारकी संतति-परिपाटीको छेदने में समर्थ नहीं है। जैसे विषको उतारनेवाला मंत्र यदि एक अक्षरसे भी न्यून हो तो वह विषकी दाहको दूर नहीं कर सकता ॥ २८ ॥
__ सम्यक्त्वके पच्चीस मल । मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट् ।
अष्टौ शंकादयो दोषाः सम्यक्त्वे पञ्चविंशतिः ॥ २९ ॥ तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन, और शंका आदि आठ दोष, ये सम्यक्त्वके पच्चीस दोष हैं । भावार्थ-इन दोषोंसे सम्यक्त्व मलिन होता है; अतः इनसे बचना चाहिए ॥ २९ ॥
लोकमूढ़ता। गोयोनि गोमयं मूत्रं चन्द्रसूर्यादिपूजनम् ।
अग्नौ गिरेः प्रपातश्च विज्ञेया लोकमूढ़ता ॥ ३० ॥ . धर्म समझकर गायकी जननेन्द्रियका स्पर्शन करना-वंदना-नमस्कार करना, उसके गोबर और मूत्रका सेवन करना, चंद्र-सूर्य आदिका पूजन करना, अनिमें गिरकर सती होना, और पर्वतसे गिरकर मरना लोकमूढ़ता है॥ ३० ॥
इनके अलावा गहते ग्रहणमें स्नान करना, संक्रांतिके दिन सोना, चांदी, तांबा आदिका दान करना, संध्याकी उपासना करना, अग्निको देव मानकर सत्कार करना, शरीरकी पूजा करना, मकानकी पूजा करना, रत्न, वाहन ( बैलआदि), भूमि, वृक्ष, शस्त्र, पर्वत इत्यादि वस्तुओंकी उपासना-पूजा करना; नदी, समुद्रोंमें स्नान करना इत्यादि और भी अनेक लोकमूढ़ता है । गायका गोबर आठ प्रकारकी शुद्धियोंमें माना गया है । यहाँपर उसका निषेध सेवन, पूजन करने आदिका है--लोग गोमय और गोमूत्रके सेवन, पूजन आदिमें धर्म मानते हैं, उसका निषेध है । कोई २ गोबरको सर्वथा अशुद्ध-अपवित्र कहते हैं, यह कथन भी ठीक नहीं है । क्योंकि आठ प्रकारकी लौकिक शुचिमें उसका पाठ है । यदि वह सर्वथा अशुद्ध ही हो तो उससे लिपी हुई जमीनको शुद्ध नहीं मानना चाहिए,और नीराजना (आरती) आदिमें उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। यथाः... लौकिक शुचित्वं कालाग्निभस्ममृत्तिकागोमयसलिलज्ञाननिर्विचिकित्सत्बभेदादष्टविधं ।
-चारित्रसार।