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सोमसेनभट्टारकविरचित
अनर्थका बाह्य लोग भी निषेध करते हैं उसका जैन ऋषि कभी भी विधान नहीं करेंगे। यह बात आवालगोपाल प्रसिद्ध है कि विवाहविधिमें सर्वत्र कन्याविवाह ही बताया गया है, विधवाविवाह नहीं । विधवाविवाहसे तो प्रत्युत उसमें घृणा प्रकट की गई है । आदिपुराणके ४४ वें पर्वमें षट्खंडाधिपति भरत चक्रोके पुत्र अर्ककीर्ति महाराज विधवासे इस प्रकार घृणा करते हैं--
नाहं सुलोचनार्थ्यस्मि मत्सरी मच्छरैरयं ।
परासुरधुनैव स्यात् किं मे विधवया तया ॥ मैं सुलोचनाको नहीं चाहता, क्योंकि इस मत्सरी जयकुमारके प्राण मेरे बाणोंसे अभी लापता हु { जाते हैं, तब मुझे उस विधवा सुलोचनासे प्रयोजन ही क्या है ? .
पद्मपुराणसे भी विधवा-विवाहका निषेध होता है-जिस समय खरदूषण शूर्पणखाको दर. कर ले भगे तब महाराज रावणने उनसे युद्ध करनेकी ठान ली । उस समय मंदोदरी महादेवी रावण महाराजसे कहती है कि
कथंचिञ्च हुतेऽप्यस्मिन् कन्याहरणदूषिता ।
अन्यस्मै नैव वि प्राण्या केवलं विधवी भवेत् ॥ हे प्राणनाथ ! आप किसी तरह युद्ध में खरदूषणको मार भी देंगे तो भी कन्या हरणसे दूषित हो चुकी है, अब वह दूसरेको देने योग्य नहीं रही है । अतएव वह खरदूषणके मारे जाने पर केवल विधवा ही कही जायगी।। __महापुराण और पद्मपुराण ये दोनों पुराण जैनोंके आर्ष ग्रंथ कहे जाते हैं । इनकी प्रमाणता भी जैनोंकी नस नसमें ठसी हुई है। अतः इन दोनों आर्ष ग्रन्थोंसे निश्चित होता है कि विधवाविवाह एक निंद्य वस्तु है और वह आगमविरुद्ध भी है। ग्रन्थकर्ता सोमसेन महाराजके अभिप्राय भी भागमानुकूल हैं। विधवाविवाहकी ओर उनके परिणाम जरा भी विचलित नहीं हैं। ग्रन्थकारने विधवाके लिए आगे तेरहवें अध्यायमें दो ही मार्ग बताये हैं, एक जिन-दीक्षा ग्रहण करना और दूस । वैधव्य दीक्षा लेना . उन्होंने इन दो मार्गोंके अलावा तीसरा विधवा-विवाह नामका मार्ग नहीं बतलाया है । अतः निश्चित होता है कि ग्रन्थकारका आशय विधवाविवाहके अनुकूल नहीं है, वे तो विधवा-विवाहको एक निंद्य वस्तु समझते हैं अन्यथा वे उक्त दो मार्गोंके अलावा वहीं पर एक विधवाविवाह नामका तीसरा मार्ग और बतला देते । ग्यारहवें अध्यायके कुछ श्लोकों परसे भी विधवाविवाहका आशय निकाला जाता है वह भी ठीक नहीं है उन श्लोकोंका स्पष्टीकरण भी वहीं करेंगे। कहनेका तात्पर्य यह है कि शूद्रापुनर्विवाहमंडने इस पदपरसे या और भी कई श्लोकों और पदोंपरसे ग्रंथकारका आशय विधवाविवाहरूप सिद्ध नहीं होता ॥ ११५-११९ ॥
निच्छिद्र निस्तुषे ताळे शिशोः प्रस्तीर्य तत्पिता। निजनाम लिखेत्तत्र स्वाभीष्टं जन्मनाम च ॥ १२० ॥ क्षीरसर्पियुते पात्रे निधाय भषणानि वै । तत्ताले पूर्वताले च गन्धपुष्पकुशान् क्षिपेत् ॥ १२१ ॥ मस्तके कर्णयोः कण्ठे भुजयुग्मे च वक्षसि ।
साज्यं पयः कुशैः सिक्त्वा भूषणैर्भूषयेच्छिशुम् ॥ १२२ ।। १ 'निस्तुषानक्षताँस्ताले ' इति पाठः साधुः।