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त्रैवर्णिकाचार। .. यज्ञोपवीतेनैकेन जपहोमादिकं कृतम् । तत्सर्व विलयं याति धर्मकार्य न सिद्धयति ॥ ५८॥ पतितं त्रुटितं वाऽपि ब्रह्मसूत्रं यदा भवेत् । नूतनं धारयेद्विमः स्नानसङ्कल्पपूर्वकम् ॥ ५९॥ यज्ञोपवीतमकैकं प्रतिमन्त्रेण धारयेत् । आचम्य प्रतिसङ्कल्पं धारयेन्मुनिरब्रवीत् ॥ ६॥ एकमन्त्रैकसङ्कल्पं धृतं यज्ञोपवीतकम् ।
एकस्मिँस्त्रुटिते सर्व त्रुटितं नात्र संशयः ॥ ६१॥ बालकके लिए एक यज्ञोपवीत होना चाहिए । गृहस्थ और वानप्रस्थके लिए दो यज्ञोपवीत होना आवश्यक है ।. सावधि (नियत समयतक) ब्रह्मचारी रहनेवालेके लिए एक ही यज्ञोपवीत परम पवित्र है । पूजा करते समय और दान देते समय दो यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए । तीसरा यज्ञोपवीत उत्तरीय-वस्त्रके लिए होता है । वह वस्त्रके अभावमें वस्त्रकी पूर्तिस्वरूप होता है । तालुके छेदसे लेकर नाभिपर्यन्त लंबा यज्ञोपवीत होना चाहिए । इस प्रमाणसे छोटा यज्ञोपवीत रहनेसे रोगकी उत्पत्ति होती है और बड़ा रहनेसे धर्मका नाश होता है । अपनी आयुष्यकी खैर. खूनी चाहनेवाला हमेशह दो या तीन यज्ञोपवीत पहना करे। पुत्र चाहनेवाला तथा धर्म चाहनेवाला पुरुष पांच यज्ञोपवीत पहने । एक यज्ञोपवीत पहन कर जप होम आदि करनेसे वह सब निष्फल होता है। इससे कछ भी धर्मकार्य सिद्ध नहीं होते। यदि यज्ञोपवीत गिर पड़े या टूट जाय तो स्नान-संकल्पपूर्वक नया यज्ञोपवीत धारण करे । जिसे जितने यज्ञोपवीत पहनने हों उसे चाहिए कि एक एक यज्ञोपतिके प्रति जुदा जुदा मंत्र पढ़कर पहने । और हरएक संकल्पके प्रति आचमन कर यज्ञोपवीत पहने । ऐसा पूर्व मुनियोंका कहना है । एक मंत्र और एक संकल्पपूर्वक यदि यज्ञोपवीत पहना जाय तो एकके टूट जानेपर सभी टूटेहुए समझना चाहिए, इसमें संशय नहीं है। क्योंकि एक मंत्र और एक संकल्पसे पहनेहुए सबके सब यज्ञोपवीत एक सरीखे ही हो जाते हैं ॥ ५४-६१॥
यज्ञोपवीतं चानन्तं मुञ्जी दण्डं च धारयेत् ।
नष्टे भ्रष्टे नवं धृत्वा नष्टं चैव जले क्षिपेत् ॥ ६२ ॥ यज्ञोपवीत, अनंत, मुंजी, और दण्डको वह बालक हमेशह अपने पास रखे । यदि ये चीजें टूटफूट जाय तो नई धारण करे और टूटी-फूटीको जलमें क्षेपण करे ।। ६२ ।।
सदोपवीतवद्धार्य वासः सकलकर्मसु ।
सह यज्ञोपवीतेन बनीयाजलकमणि ॥ ६३ ॥ जैसे सम्पूर्ण कृत्योंमें यज्ञोपवीत धारण किया जाता है, वैसे ही सारे कार्मोमें एक दुपट्टा भी, जैसा कि शरीरमें यज्ञोपवीत पहना गया है उसी तरह धारण करे । और जलकृत्यों में उसे और यज्ञोपवीतको बांधे ॥ ६३ ॥