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सोमसेनभट्टारकविरचित
नहीं है। ऐसा पूर्वाचार्यों का कहना है । कन्या के विवाह के समय नान्दीश्राद्ध हो चुकनेपर यदि कन्याकी माता रजस्वला हो जाय तो उस समय कन्याका पिता कन्या- दान करे । इत्यादि जिनेन्द्र देवका कहना है ॥ १२-१५ ॥
शुभे ग्रहे शुभे योगे मौञ्जीबन्धोचितं सुतम् ।
संस्नाप्य भूषयित्वा तं मात्रा सह तु भोजयेत् ॥ १६ ॥ केशानां मुण्डनं कृत्वा शिखाशेषं तु रक्षयेत् । हरिद्राज्यसुसिन्दूरदूर्वादिकं विलेपयेत् ॥ १७ ॥ पुनः संस्नाप्य पुण्याहवाग्भिः सिक्त्वा कुशाम्बुभिः । आज्यभागावसानान्तैः सुगन्धिभिर्विलेपयेत् ॥ १८॥ नान्दीश्राद्धं च पूजां च होमं च वाद्यघोषणम् । सर्व कुर्याच्च तस्याग्रे पूर्ववद्गुरुपूजनम् ॥ १९ ॥
मौंजीबन्धन करने योग्य बालकको शुभग्रह और शुभयोगमें स्नान कराकर, उसे कपड़े आभूषण पहनाकर माताके साथ भोजन करावे । चोटी छोड़कर उसके केशोंका मुंडन करावे । हल्दी, घी, सिंदूर, दूब आदिका उसके सिरपर लेप करे । उसके बाद उसे फिर स्नान कराकर पुण्याहवचनों द्वारा कुश और जलसे सेचन कर आज्यभागके अन्तिम सुगन्ध ( चंदन ) से बालकके लेप करे । फिर इस बालकके सामने पहलेकी तरह नान्दीश्राद्ध, पूजा, होम, और वाद्यघोषण ( बाजा बजवाना ), गुरुपूजन आदि सब कार्य करे ॥ १६-१९ ॥
आसने सुमुहूर्ते तु ग्रहस्तोत्रादिकं पठेत् । परमेष्ठिनमस्कारमन्त्रं च संस्मरेत्सदा ॥ २० ॥ पद्मासनस्थः पुत्रोऽसौ प्रसाद्य मुदगाननः । निर्निमेषं निरीक्षेत पित्रास्यं जन्मशुद्धये ॥ २१ ॥ पुत्रस्य सम्मुखं स्थित्वा तत्पिता सुमुहूर्तके ।
arti वा गन्धेन ललाटे तिलकं न्यसेत् ॥ २२ ॥
इसके बाद समीपवर्ती सुमुहूर्त में ग्रहस्तोत्रों का पाठ करे । और हमेशह पंचनमस्कारको स्मरण करे । वह बालक उत्तरकी ओर मुख कर पद्मासन ( पलाठीमार ) बैठकर अपने द्वितीय जन्मकी शुद्धिके लिए निर्निमेष अर्थात् आंखोंकी पलकोंको न झपकाते हुए प्रसन्नतायुक्त पिताके मुखका निरीक्षण करे । बालकका पिता भी अच्छे मुहूर्तमें पुत्रके सामने खड़ा होकर पुत्रके मुखको देखे और उसके ललाटपर तिलक लगावे ॥ २०-२२ ॥
मुञ्जत्रिवर्तिवलितां मौऔँ त्रिगुणितां शुभाम् । कौपीनकटिसूत्रोर्ध्व कटिलिंगं प्रकल्पयेत् ॥ २३ ॥
मंत्र-ॐ ह्रीं कटिप्रदेशे मौंजीबन्धं प्रकल्पयामि स्वाहा । इत्युक्त्वा कट्यां त्रिलिङ्गसमन्वितां मौंजीं बध्नीयात् ।