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सोमसेनभट्टारकविरचितकुटुंबमें रहकर सबको सुखी कर । इन वचनोंको सुनकर वह बालक उसे स्वीकार करे और चैत्यालयमें जावे । वहांपर होम जिनपूजन आदि क्रियाएं करे । इसके बाद ब्राह्मण आदि सारे मनुष्योंको भोजन कराकर, पुण्यके अर्थ वस्त्र, आभूषण और तांबूलद्वारा विधिपूर्वक उनका यथायोग्य सत्कार करे ॥ ४१-४४ ॥
बोधि-पूजन। चतुर्थवासरे चापि संस्नातः पितृसन्निधौ । संक्षिप्तहोमपूजादि कर्म कुर्याद्यथोचितम् ॥ ४५ ॥ शुचिस्थानस्थितं तुझं छेददाहादिवर्जितम् । मनोज्ञं पूजितुं गच्छेत्सुयुक्त्याऽश्वत्थभूरुहम् ॥ ४६॥ दभेपुष्पादिमालाभिहेरिद्राक्तसुतन्तुभिः। स्कन्धदेशमलंकृत्य मूलं जलेश्च सिंचयेत् ॥ ४७॥ वृक्षस्य पूर्वदिग्भागे स्थण्डिलस्थाग्निमण्डले। नव नव समिद्भिश्च होमं कुर्याघृतादिकैः ॥ ४८ ॥ पूतत्वयज्ञयोग्यत्वबोधित्वाद्या भवन्तु मे । त्वद्वद्घोधिद्रुमत्वं च मच्चिन्हधरो भव ॥ ४९ ।। तं वृक्षमिति सम्पार्थ्य सर्वमंगलहेतुकम् । वृक्षं वन्हि त्रिः परीत्य ततो गच्छेद्गृहं मुदा ॥ ५० ॥ एवं कृते न मिथ्यात्वं लौकिकाचारवर्तनात् ।. भोजनानन्तरं सर्वान् सन्तोष्य निवसेदगृहे ॥ ५१ ॥ पतिमासं क्रियां कुयोद्धोमपूजापुरःसराम् ।
श्रावणे तु विशेषेण सा क्रियाऽऽवश्यकी मता ॥ ५२ ॥ चौथे दिन वह बालक, अच्छी तरह स्नानकर पिताके निकटमें संक्षेपसे यथायोग्य होम पूजा आदि कर्म करे । पवित्र स्थानमें खड़ा हो, ऊंचा हो, छिन्नभिन्न न हो, और जला हुआ न हो, ऐसे एक मनोहर पीपलके वृक्षको देखकर उसकी पूजाके लिए वह बालक जावे। दर्भ, फूलमाला हल्दीसे रंगे हुए सूतसे उस वृक्षके स्कंधको सुशोभित कर उसकी जड़को जलसे सींचे । उस वृक्षकी पर्व दिशामें एक चौकोन चबूतरा बनाकर उसमें गोल अग्निकुंड बनावे । उसमें अमि तैयार कर नौ नौ समिधाओं और घृत आदिसे होम करे । और हे वृक्ष ! तेरी तरह मुझमें भी पवित्रता हो, यायोग्यता हो, जिस तरह तुझे बोधि नाम प्राप्त है उसी तरह मुझे बोधि-रत्नत्रयकी प्राप्ति हो और तूं भी मेरे समान चिन्हका धारण करनेवाला हो। इस प्रकार सम्पूर्ण मंगलोंके कारण उस वृक्षराजसे प्रार्थना करे । पश्चात् उसके तीन प्रदक्षिणा देकर सहर्ष घरपर आवे। इस तरह इस लौकिक आचरणके करनेसे मिथ्यापन नहीं है। घरपर आकर भोजनके बाद सबको संतोषित कर घरमें रहे । यह क्रिया हर महीनेमें करता रहे। परंतु श्रावण महीनेमें यह क्रिया अवश्य की जानी चाहिए