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त्रैवर्णिकाचार |
गर्भाधाने पुंसवने सीमन्तोन्नयने तथा । वधूमवेशने शूद्रापुनर्विवाहमण्डने ॥ ११६ ॥ पूजने कुलदेव्याश्च कन्यादाने तथैव च । कर्मस्वेतेषु वै भार्या दक्षिणे तूपवेशयेत् ॥ ११७ ॥ कन्यापुत्रविवाहे तु मुनिदानेऽर्चने तथा । आशीर्वादाभिषेके च प्रतिष्ठादिमहोत्सवे ।। ११८ ॥ वापीकूपतडागानां वनवाट्याच पूजने ।
शान्ति पौष्टिके कार्ये पत्नी तूत्तरतो भवे ॥ ११९ ॥
जातकर्म, नामकर्म, अन्नप्राशनकर्म, व्रतग्रहणकर्म और चौलकर्ममें पत्नी और पुत्रको अपनी दाहिनी ओर बैठावे । गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, वधूप्रवेश, शूद्रापुनर्विवाह, कुलदेवताकी पूजा और कन्यादान के समय पत्नीको दाहिनी ओर बैठावे तथा पुत्रविवाह, पुत्रीविवाह, मुनिदान अर्चन, आशीर्वादग्रहण, अभिषेक, प्रतिष्ठादि महोत्सव, बावड़ी, कुआ, तालाव और बागीचे के मुहूर्त, शान्तिकर्म और पौष्टिक कर्मके समय पत्नीको अपनी बाई ओर लेकर बैठे। भावार्थश्लोक नं० ११७ में 'शूद्रापुनर्विवाहमंडने' यह पद पड़ा हुआ है । इस परसे शायद यह खयाल किया जाय कि इस ग्रन्थमें पुनर्विवाहका मंडन भी पाया जाता है, पर यह खयाल ठीक नहीं है । क्योंकि शूद्रोंके दो भेद हैं— सच्छूद्र और असच्छूद्र या भोज्यशूद्र और अभोज्यशूद्र । जिनमें एक वार ही विवाह करनेकी रिवाज है जो दूसरी वार विवाह ( घरेजा ) नहीं करते हैं वे सच्छूद्र होते हैं । तदुक्तं
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सकृत्परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्रा ।
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- सोमनीति ।
इससे विपरीत जिनमें घरेजा प्रचलित है वे असच्छूद्र होते हैं । तथा जिनका अन्न पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र लेते हैं वे भोज्यशूद्र होते हैं । इनसे विपरीत अभोज्य शूद्र होते हैं । तदुक्तं — भोज्याः - यदन्नपान ब्राह्मणक्षत्रियविछूद्रा भुज्यन्ते, अभोज्याः - तद्विपरीतलक्षणाः । - नान्दिगुरु ।
इससे यह नतीजा निकला कि सच्छूद्र प्रशस्त और भोज्य होते हैं । इसमें हेतु पुनर्विवा हका न होना ही है । जब शूद्रों में भी सर्वाशसे विधवाविवाहका उपदेश नहीं है तब एकदम उच्च जातिवालोंके लिये ग्रन्थकारने " शूद्रापुनर्विवाहमंडने " इस पद द्वारा विधवाविवाहका उपदेश दिया है यह कहना नितांत भूल भरा है । असल बात यह है कि इस ग्रन्थ में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के आचारका मुख्यतासे वर्णन किया है । और बीच बीचमें दोनों तरहके शूद्रों का आचरण भी यत्र तत्र गौणता से बताया है। अच्छूद्रों में पुनर्विवह (घरेजा) की प्रवृत्ति प्रचलित है, अतः प्रकरणवश असच्छूद्रों के इस कर्तव्यका भी कथन कर दिया है । एतावता विधवाविवाह सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि विधवाविवाह आगमसे विरुद्ध पड़ता है । आगम विधवाविवाह कहीं भी नहीं लिखा है । जैन आगम में ही नहीं, वल्कि ब्राह्मण सम्प्रदाय के आगममें भी विधवाविवाहकी विधि नहीं कही गई है। इस विषय में मनुका कहना है कि "न विवाह विधावुक्तं विषवावेदनं पुनः " अर्थात् विवाहविधि में विधवाका विवाह कहा ही नहीं गया है । जिस
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