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त्रैवर्णिकाचार।
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पूर्ववद्धोमपूजादि कार्य कृत्वा जिनालये । पुत्रं संस्नाप्य सद्भरलंकृत्य विलेपनैः ॥ १७१ ॥ विद्यालयं ततो गत्वा जयादिपञ्चदेवताः। सम्पूज्य प्रणमेद्भक्त्या निर्विघ्नग्रन्थसिद्धये ॥ १७२ ॥ वस्त्रैर्भूषैः फलद्रव्यैः सम्पूज्याध्यापकं गुरुम् ।
हस्तद्वयं च संयोज्य प्रणमेद्भक्तिपूर्वकम् ॥ १७३ ॥ इस तरह ऊपर बताये हुए किसी एक मुहूर्तमें विद्या प्रारंभ करावे । उस दिन माता, गुरु और शास्त्र-सरस्वतीकी पूजा करे । पहलेकी तरह जिनालयमें जाकर होम, जिनपूजा आदि करे । बाद बालकको स्नान कराकर, वस्त्र आभूषण पहनाकर, ललाटमें तिलक लगाकर विद्यालय-स्कूलमें ले जावे । वहां जाकर निर्विघ्न रीतिसे विद्या समाप्त होनेके लिए जमारि पांच देवतोंकी पूजा कर उन्हें भक्ति भावसे उस बालकसे नमस्कार करावे । बाद वस्त्र, आभूषण फल और रुपये वगैरहसे अध्यापककी पूजाकर दोनों हाथ जोड़ भक्तिपूर्वक बालक अध्यापक को नमस्कार करे ॥ १७०-१७३ ॥
पाङ्मुखो गुरुरासीनः पचिमाभिमुखः शिशुः । कुयोदक्षरसंस्कारं धर्मकामार्थसिद्धये ॥ १७४ ।। विशालफलकादौ तु निस्तुषाखण्डतण्डुलान् । उपाध्यायः प्रसायोथ विलिखेदक्षराणि च ॥ १७५ ॥ शिष्यहस्ताम्बुजद्वन्द्वधृतपुष्पाक्षतान् सितान् । क्षेपयित्वाऽक्षराभ्यणे तत्करेण विलेखयेत् ॥ १७६ ॥ हेमादिपीठके वाऽपि प्रसार्य कुङ्कुमादिकम् । सुवर्णलेखनीकेन लिखेत्तवाक्षराणि वा ॥ १७७ ॥
नमः सिद्धेभ्य इत्यादौ ततः स्वरादिकं लिखेत् । . . अकारादि हकारान्तं सर्वशास्त्रप्रकाशकम् ॥ १७८ ॥
विद्या सिखानेवाला गुरु पूरबकी ओर मुखकर बैठे । बालकको पश्चिमकी ओर मुखकर बैठावे। बाद धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धिके लिए अक्षर-संस्कार करे। वह इस तरह कि एक मोटी पट्टीपर छिलके-रहित अखंड चाँवलोंको बिछाकर उपाध्याय प्रथम आप खुद अक्षर लिखे । बाद उन अक्षरोंके पास बालकके हाथसे सफेद फूल और अक्षतोंको क्षेपण करा कर उसके हाथको अपने हाथसे पकड़. कर उससे अक्षर लिखबावे । अथवा सोना, चांदी आदिके बने हुए पाटेपर कुंकुम, केशर आदि बिछाकर सोनेकी लेखनीसे उसपर अक्षर लिखे और बालकसे लिखावे । अक्षर लिखते समय सबसे पहले 'नमः सिद्धेभ्यः' लिखे । इसके बाद अकारको आदि लेकर हकारपर्यंतके संपूर्ण शास्त्रोंको प्रकाश करनेवाले स्वर और व्यंजन लिखे और बालकसे लिखावे ॥ १७४-१७८ ॥
मंत्र-ॐ नमोऽहते नमः सर्वज्ञाय सर्वभाषाभाषितसकलपदार्थाय पालकमक्षराभ्यासं कारयामि द्वादशाङ्गश्रुतं भवतु भवतु ऐं श्रीं न्हीं क्लीं स्वाहा ।